परमात्मा सम्बन्धी धारणा

परमात्मा सम्बन्धी धारणा          

ब्रम्हाजी ने नारद से कहा-------
यस्यावतार कर्माणि गायन्ति ह्यस्मदादयः।
न यं विदन्ति तत्त्वेन तस्मै श्रीभगवते नमः।।
हम सब जिनके अवतार की लीलाओं का गुणगान ही किया करते हैं, किन्तु उनके तत्त्व को नहीं जानते---उन श्रीभगवान् के श्रीचरणों में हम नमस्कार करते हैं।
(श्री मद् भागवत् महापुराण २/७/३७)

परमात्मा या अल्लाहतआला या गॉड या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता से सम्बंधित ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान सत्यरूप से लेकर वर्तमान समय (कलियुग) तक परम रहस्य बना हुआ चला आ रहा है। परमात्मा क्या है? उसका नाम-रूप क्या और किस प्रकार का है? वह कहाँ रहता है? क्या उसे जाना, देखा तथा पहचाना जा सकता है? यदि नहीं, तो क्यों? और यदि हाँ तो किस विधान से? वेद, उपनिषद्, रामायण, गीता, पुराण, बाइबिल, कुर्रान, गुरूग्रन्थ साहब आदि-आदि समस्त सद्ग्रन्थों को पढ़ने-समझने तथा स्थूल-दृष्टि, सूक्ष्म-दृष्टि, दिव्य-दृष्टि और ज्ञान-दृष्टि के माध्यम से देखने और परखने यानि निरीक्षण करने पर सत्ययुग से इस कलियुग तक परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान् या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता से सम्बंधित तीन प्रकार की धारणायें मिलती हैं जिसे क्रमशः आपके समक्ष उपस्थित किया जा रहा है। आप बंधुओं से अनुरोध है कि निष्पक्ष भाव से आप अपने को ढूंढें कि किसमें हैं। तत्पश्चात् अगली अर्थात् श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम् धारणाओं को स्वीकार करते हुये परमात्मा-परमेश्वर परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान् या परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् तक पहुँचने का प्रयत्न करें। किसी भी जाति, धर्म या सम्प्रदाय का यही अभीष्ट लक्ष्य होता है। इसलिए यदि यह हो रहा हो तो निःसंकोच भाव से स्वीकार करना चाहिए। यह बात आवश्यक है कि पहले आप परीक्षण कर लेवें जिससे कि गलत स्थान पर ण फँस जायें।
परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान् की जानकारी से सम्बंधित तीन प्रकार की धारणायें देखें। इसमें आप अपने को निष्पक्ष भाव से ढूंढें।
सूत्र:- ॐ के पिता सोsहँ तथा सोsहँ हँसो के पिता तत्त्वज्ञान को ही जानें, क्योंकि ॐ कर्म से सम्बंधित और सोsहँ-हँसो-योग या अध्यात्म के क्रियात्मक साधना (जीवात्मा) से सम्बंधित तथा तत्त्वज्ञान परमात्मा से सम्बंधित होता है। ॐ और सोsहँ हँसो इस भू-मण्डल पर हर समय ही रहते हैं परन्तु तत्त्वज्ञान समय-समय पर, जब-जब परमधाम से परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान का अवतरण होता है, तब-तब उसी के द्वारा तत्त्वज्ञान से ही अपनी यथार्थ जानकारी या पूर्ण परिचय-पहचान अनन्य श्रद्धा-भक्ति और निष्कपटता पूर्वक पूर्ण समर्पण शरणागत-भाव वाले परम जिज्ञासु को प्रदान किया जाता है। अर्थात् तत्त्वज्ञान परमात्मा के द्वारा ही तथा परमात्मा के साथ ही समय-समय पर प्रकट होता है।

१. मूर्तिवादी एवं शास्त्रीय धारणा
(The Concept of Materialism and Idolism)
मूर्तिवादी एवं शास्त्रीय धारणा वाले व्यक्ति जड़वादी विचार या धारणा वाले व्यक्ति भी कहलाते हैं। संसार में जितने भी मूर्ति एवं शास्त्र पूजक अर्थात् मूर्तियों, वेद, उपनिषद, रामायण, गीता, पुराण, बाइबिल, कुरान, गुरुग्रन्थ साहब आदि सद्ग्रंथों, मन्दिर, मस्जिद, गिरिजाघर या गुरुद्वारा आदि में ही परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान का स्थान या घर मानकर या उसके समान मानकर उन्ही (मूर्तियों, वेद, पुराण आदि सद्ग्रंथों, आदि स्थानों) की पूजा-पाठ, मनन-चिन्तन तथा पूर्ण समर्पण भाव से भक्ति-सेवा आदि करते हुये उन्ही का दर्शन कर अपने को धन्य एवं कृत-कृत्य मान लेने वाले लोग हैं। ये सभी जड़वादी धारणा के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि मूर्तियाँ, सद्ग्रंथ एवं मन्दिर-मस्जिद आदि स्थान सभी जड़ वस्तुएं ही हैं। आदिकाल से लेकर वर्तमान समय तक के समस्त विद्वान, पण्डित, दार्शनिक, विचारक, रामायणी, शास्त्री आदि इसी मूर्तिवादी एवं शास्त्रीय-कर्मकाण्डी धारणा वाले लोग हैं।
जड़वादी अर्थात् मूर्तिवादी एवं शास्त्रीय धारणा वाले व्यक्तियों के अन्तर्गत विद्वान, पण्डित, दार्शनिक, विचारक, शिक्षित, रामायणी, गीताध्यायी, कवि, लेखक आदि अधिकतर पढ़े-लिखे समाज ही आते हैं। इन लोगों का मुख्य रूप से कोई अपना अस्तित्व होता ही नहीं। इन्हे न तो जीव की जानकारी होती है और न आत्मा की ही। परमात्मा की जानकारी इन्हे कदापि नहीं रहती है। इनके विचार एवं क्रिया कलाप, परमात्मा की यथार्थ जानकारी एवं पहचान के ठीक प्रतिकूल होता है। इनको जाति एवं वंश विद्या (शिक्षा) पाण्डित्य, शास्त्रीय जानकारी एवं शुद्ध सात्विक कर्मों का इतना बड़ा अभिमान या अहंकार होता है कि ये लोग अपने समान, योगी-यतियों, ऋषि-महर्षियों सन्त-महात्मन आदि किसी को अन्तःकरण में स्वीकार करते हुये भी बाहरी झूठी मर्यादा बनाए रखने हेतु केवल कहते-बोलते हैं कि समाज जाने-समझे कि ये लोग हमारे आगे कुछ भी नहीं हैं।
ये लोग अध्ययन एवं शिक्षा को ही सर्वे-सर्वा (सब कुछ) समझते हैं और शिक्षा एवं अध्ययन ही इनके परीक्षण का आधार होता है। महात्माओं, योगी-यतियों एवं साधकों को भी ये लोग शिक्षा के माध्यम से ही परीक्षण करना चाहते हैं। ये सभी लोग वेद-उपनिषद, रामायण, गीता, पुराण, बाइबिल-कुरान आदि-आदि सद्ग्रंथों के अध्ययन, मनन-चिन्तन के माध्यम से जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं एवं योग-साधना-अध्यात्म द्वारा आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-हँसो-ज्योति-शिव-नूर और तत्त्वज्ञान द्वारा सत्पुरुष रूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान को खोजने (शोध करने) के बजाय व्याकरण-अलंकार, छन्द, लिंग, पुरुष (विभक्ति) प्रत्यय आदि दोष-गुण में ही सारा समय व्यर्थ बिता देते हैं।
सद्ग्रंथों की रचना जीव एवं आत्मा और परमात्मा को जानने समझने के लिए हुई, परन्तु ये विद्वान एवं शास्त्री लोग उन सद्ग्रंथों में अक्षर, मात्रा, शब्द, वाक्य, लकार, अलंकार, प्रत्यय, छन्द आदि की खोज में ही अपनी सम्पूर्ण विद्वता का प्रदर्शन करते हुये शास्त्रों की लच्छेदार भाषा में धारावाहिकता एवं कलाकारिता के साथ बहुत ही आकर्षक एवं मोहक ढंग से व्याख्यायुक्त प्रवचन करने लगते हैं। ये लोग उसी सत्संग को प्रवचन की उपाधि देकर, शास्त्रों से उक्त सत्संग की महिमा सुनाने लगते हैं। जिनके कारण भोले-भाले धर्म-प्रेमी लोग उन्हे महात्मा कहने लग जाते हैं और वे शास्त्र के अक्षर, मात्रा, अलंकार तथा प्रत्यय-छन्द वाले विद्वान जी महात्मा बनकर आडंबर युक्त एवं पाखण्डी रूप (तिलक, चन्दन, माला द्वारा महात्माओं का वेश) धारण कर धर्म के उपदेशक बनकर समाज से काफी मात्रा में धन-सम्पत्ति आदि ठगने दोहन-शोषण करने लगते हैं। धर्म एवं परमात्मा की तो इन्हे बिल्कुल ही जानकारी नहीं रहती है। यहाँ तक कि इन्हे जीव और आत्मा की भी जानकारी नहीं रहती है। ये जितना ही सुशिक्षित होते हैं उतना मूढ़ अहंकारी भी होते हैं।
चूँकि ये समाज में विद्वान घोषित रहते हैं अतः उसी का नाजायज लाभ उठाते हैं। ये लोग धर्म एवं परमात्मा के अज्ञानता एवं मिथ्याभिमानवश जाने-अनजाने, स्वभावतः विरोधी होते हैं। श्री करपात्री जी, वर्तमान शंकराचार्य जी गण, निरीक्षणपति मिश्र, मुरारीबापू, आशाराम, सुधांशु सारे के सारे तथाकथित जगद्गुरु-महामण्डलेश्वर-मानस मर्मज्ञ- मानस मार्तण्ड- किरीट भाई आदि-आदि लोग इसी श्रेणी के हैं। ये धर्म सम्राट एवं अनन्त श्री श्री आदि की उपाधियों से स्वयं विभूषित कर-कराकर धर्म के नाम पर मनमानी लूट करते हुये धर्म प्रेमी समाज के श्रद्धा विश्वास का नाजायज लाभ लेते हैं और उन्हे गर्त में मिला दे रहे हैं। वेदों के मंत्रों, गीता-पुराण आदि शास्त्रों के श्लोकों, श्रीरामचरितमानस के सोरठा, दोहा, छन्द एवं चौपाइयों को व्याकरण के आधार पर तोड़-मरोड़ कर इनके यथार्थ संकेतों एवं भावों से भोली-भाली धार्मिक जनता को ये लोग इतना दूर फेंक देते हैं कि पुनः उन भावों और संकेतों पर लौटकर जीव एवं आत्मा और परमात्मा को जानने की स्थिति में होना अत्यन्त कठिन हो जाता है। देखना तो बहुत-बहुत ही दूर की बात है। इन लोगों की और इन के अनुयायियों की तो ठीक वही स्थिति है जो रावण और उसके अनुयायियों (दूतों) की, तत्कालीन ऋषि-महर्षियों, योगी-महात्माओं तथा श्रीरामचन्द्र जी को जानने-पहचानने के प्रति जो थी। ये लोग भी विद्वता की दृष्टि से रावणवंशीय हैं ही, इसमें शंका की थोड़ी भी गुंजाइश ही नहीं है।
एक श्री वाले श्रीविष्णु जी महाराज तो भगवान के अवतार कहलाते हैं, तब आप पाठक बन्धुओं, विचार करें कि आजकल इस समय सैकड़ों श्री श्री अनन्त श्री वाले तथा धर्म सम्राट की उपाधियों वाले ये लोग कौन हैं? जबकि परमात्मा तो परमात्मा है, आत्मा और स्वयं जो हम जीव है उसके विषय में भी इन समस्त लोगों को कोई जानकारी नहीं रहती है। पहले इन जड़वादी जढ़ियों का यह विचार देखें कि हरिजन प्रवेश से श्री विश्वनाथ जी ही अपवित्र हो गए। इतना ही नहीं, नए पवित्र विश्वनाथ जी पैदा कर स्थापित भी कर दिये गए। अब हमें (सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद वाले सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस को) तो ऐसा लग रहा है कि दूसरा कोई श्रीरामचन्द्र जी पैदा न कर दिये जाएँ क्योंकि अधमाधम नारी सेवरी, मछुआ केवट तथा अशुद्ध पक्षी गिद्ध जटायु आदि से छूआ जाने से कहीं ये सब लोग उनको भी अपवित्र घोषित न कर दें।
ये लोग वेद-शास्त्रों की बातों में तो काफी ऊँची उड़ान भरते हैं, अर्थात् लच्छेदार एवं आकर्षक भाषा में धारावाहिक व्याख्यान एवं प्रवचन देते हैं। किन्तु इनकी एक-एक दिन की फीस, जिसमें भी ये मात्र एक-डेढ़ घंटा तक ही बोलते हैं, बीस-बीस से चालीस हजार तक है। श्री करपात्री जी, शंकराचार्य जी, मुरारी बापू, सुधांशु वर्तमान व्यास जी सब एवं अन्य प्रसिद्ध रामायणी जी आदि महानुभावों की यही स्थिति है। दिखलाने के लिए ये फीसें, वे नहीं मांगेंगे, बल्कि इंका कार्यक्रम (प्रोग्राम) देने वाले सचिव माँगते हैं। भला ये लोभी लालची कहाँ हैं कि रुपया मांगेंगे। रुपये आदि की बात तो सचिव जी करेंगे। मालूम पड़ता है कि मिलने वाला रुपया पैसा सचिव जी के घर जाता है; नहीं ! कदापि नहीं ! वह रुपया इन्ही लोगों के घर जाता है। मात्र व्यवस्था सचिव जी करते हैं ताकि ये लोग लोभी लालची न कहलायेँ। इनसे मिलने कोई सेठ या अधिकारी आता है तो भक्त को आने दो और गरीब भगवद् भक्त आता है तो दूर से ही सीता राम कहो’, ॐ नमों भगवते वासुदेवाय कहो और जाइये जाइये कहने लगते हैं--- यह हाल हो गया है श्री देवरहवा बाबाजी का। जबकि ये अच्छे श्रेणी के साधु एवं साधक थे, परन्तु समाज के चलते अब ये भगवान की जगह अपने दर्शन और आशीर्वाद देने लगे हैं।
श्री करपात्री जी, श्री शंकराचार्य जी गण, निरीक्षण पति मिश्र एवं समस्त रामायनी तथा मात्र शास्त्र आदि को पढ़कर-जानकर बनने वाले विद्वानों, महात्माओं एवं मुरारी बापू-आशाराम-सुधांशु आदि आदि शास्त्रियों आदि की स्थिति ठीक गिद्ध पक्षी के समान होती है। जैसे गिद्ध आसमान में तो बहुत काफी ऊँचाई तक उड़ानें भरता है परन्तु उसकी दृष्टि जमीन पर मरे हुये पशुओं के मांस पर ही रहती है, ठीक उसी प्रकार जड़वादी धारणा वाले लोग प्रवचन के समय तो ऐसी उड़ाने मारते व भरते हैं कि श्रोता लोग मुग्ध हो जाते है। किन्तु इनके सभी परिश्रमों एवं कलाकारियों का एकमात्र लक्ष्य पैसा-रुपया ही होता है। इनके पास जिज्ञासुओं के लिए तो समय नहीं रहता है किन्तु सेठों को ये पूरा समय देते हैं क्योंकि उन्हीं के पैसे के सहारे तो आसमान में उठे हैं उनको ये लोग महत्व न दे तो पुनः ये खिसक कर जमीन पर नहीं चले आयेंगे, अवश्य ही चले आयेंगे? अवश्य ही चले आयेंगे।
जड़वादी धारणा वाले लोग भूतवादी विचारों के पोषक एवं वर्तमान विचारों या धारणाओं के पूर्णतः शोषक होते हैं। धार्मिक विचार धारा के अनुसार समाज से धार्मिक भावनाओं की समाप्ति के एकमात्र ये लोग ही उत्तरदायी या जिम्मेदार होते हैं, क्योंकि इन लोगों को न तो जीव की जानकारी होती है और न आत्मा की ही। परमात्मा के वर्तमान अवतार के तो ये लोग कट्टर विरोधी ही होते हैं। चूँकि वे विद्वान जरूर होते हैं, इसलिये समाज इनकी कदर करने लगता है। समाज के उस कदर और विश्वास का नाजायज लाभ लेकर धर्म के क्षेत्र में ये अंधे स्वयं मार्ग दर्शक बन जाते हैं और भोले-भाले समाज को परमात्मा की जानकारी, पहचान एवं प्राप्ति वाले प्रकरणों को छिपाकर अपने लच्छेदार व्याकरणयुक्त आकर्षक प्रवचनों में फँसाकार दिग्भ्रमित कर देते हैं। जबकि प्रत्येक सद्दग्रन्थ के अन्तर्गत ही इन मूढ़, जड़ एवं अन्धे विद्वानों को धर्म का उपदेश देने से मना किया गया है तथा समाज को चेतावनी भी दी गयी है कि ऐसे लोगों से धार्मिक उपदेश कदापि न लें।

पाठक बन्धुगण जरा विचार करें कि इन सबों को जब जो हम जीव ये स्वयं है को भी जानने-देखने की जरूरत नहीं, आत्मा और परमात्मा की जानकारी, पहचान एवं प्राप्ति से तो उन्हें कोई मतलब ही नहीं होता है तो आखिर ये किस प्रयोजन को साधना चाहते हैं?
जरा इन लोगों से पूछा जाय कि जब धन कमाने के लिए दुनिया में अनेकों उद्योग-धन्धे बने हुये हैं तो ये उन क्षेत्रों में न जाकर धर्म के पवित्र मार्ग को कमाने का एकमात्र अच्छा-ख़ासा व्यवसाय क्यों बनाये हुये हैं? क्या यह उचित हैं? ऐसे व्यवसायी लोग तो धार्मिक समाज के पूर्णतः कलंक ही है। जिन सद्दग्रन्थों को पढ़-चाट (यादकर) ये लोग व्यवसायी महात्मा बने हुये हैं उन सद्दग्रन्थों की उन पंक्तियों को ये क्यों छिपा देते हैं जिनमें इनके जैसे लोगों को मूढ़, जड़ एवं अन्धा आदि के साथ ही गिद्ध और कौवा की उपाधियाँ प्रदान करते धर्मोंपदेश देने से मना किया गया है। क्या इन्हें उन ग्रन्थों के सभी मंत्र-श्लोक आदि याद होते हैं और इस प्रकार के निर्देश याद नहीं रहते हैं? इतना ही नहीं, जब साधक या योगी महात्माजन उन निर्देशात्मक मंत्रों और श्लोकों द्वारा जानकारी समाज को देने लगते हैं, तब ये लोग उल्टे उन्हीं साधकों, संत महात्माओं एवं योगियों की निंदा-आलोचना आदि करने लगते हैं और उनके खिलाफ समाज को भी भड़काने लगते हैं।

चूँकि उन लोगों की विद्वता का शिकार समाज एवं शासन-प्रशासन के ऊँचे-ऊँचे अधिकारी जन भी हो गये रहते हैं। अतः ये लोग उनके अधिकारों का दुरुपयोग कराकर उन साधकों, सन्त-महात्माओं, समाज-सुधारकों एवं समाजोद्धारकों को नाना प्रकार से निन्दित एवं प्रताड़ित करने-कराने लगते हैं। यहाँ तक कि भू-मण्डल पर जब-जब परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा अपने परमधाम से अवतरित होकर किसी शरीर को धारण कर अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु कार्यारम्भ करते हैं, तब-तब ये आडंबरी, पाखण्डी, अभिमानी, अहंकारी एवं धर्म का चोंगा (वेष) धारण करके समाज को विनाश के कगार तक पहुँचा देने वाले उनसे (शरीर धारी परमात्मा से) तो खुलकर ही विरोध एवं संघर्ष पर उतर जाते हैं।
इतना ही नहीं, उस शरीरधारी परमात्मा के लाख कहने पर भी कि बंधुओं ! परमात्मा शरीर नहीं होता बल्कि एक सर्वोच्च शक्ति-सत्ता होता है। वह अजन्मा, अविनाशी, सबका सुह्रद एवं परम प्रेमी होता है। उसकी जानकारी एवं पहचान संघर्ष से नहीं, बल्कि तत्त्वज्ञान से होती है। ये जड़वादी धारणा वाले जढ़ी, अभिमानी जन उनकी बातों को न मानकर, उनको साधारण मनुष्य जानकर, संघर्ष (युद्ध तक) पर उतर कर विनाश के मुख में चले जाया करते हैं फिर भी विरोध करने और भगवद्द जिज्ञासु जनमानस को भरमाने-भटकाने से बाज नहीं आते हैं। साधकों, योगी-यतियों और साधु-महात्माओं से टकराते और विजय पाते हुये इनका मन बढ़ गया रहता है जिसके कारण परमात्मा वाली शरीर से भी ये टकराये बिना नहीं मानते हैं।
यद्यपि समस्त सद्ग्रंथों के पढ़ने से उनको ज्ञात रहता है कि सन्त-महात्माओं से नहीं टकराना चाहिए। फिर भी वे अपनी जड़ता, मूढ़ता, अन्धेपन एवं विद्वतापूर्ण अभिमान या अहंकार के कारण परमात्मा वाली शरीर को सामान्य समझते हुये उनसे विरोध और संघर्ष के बिना नहीं मानते हैं। मज़े की बात तो यह है कि परमात्मा वाली शरीर को ही मूर्तिवत् स्थापित कर उनकी भूत की कृतियों को लीलाओं के रूप में स्वीकार कर ये लोग नाचते-गाते एवं कीर्तन आदि भी करते हैं, परन्तु वर्तमान में टकराये बिना, निन्दा, आलोचना, विरोध और संघर्ष किए बिना नहीं मानते हैं।    
शरीर के साथ जब तक परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा रहते हैं तब तक तो ये जड़वादी धारणा वाले लोग परमात्मा को ही अहंकारी एवं अभिमानी आदि घोषित करते हैं और जब परमात्मा शरीर छोड़कर अपने परम आकाश रूप परमधाम को चले जाते हैं तब उस शरीर के आकर की ही मूर्ति फोटो आदि बनवा-छपवा कर पूजा करते हैं तथा उन्ही की कृतियों एवं उपदेशों के आधार पर सद्ग्रंथों को लिख-लिख कर और पुनः उसी को पढ़-पढ़कर विद्वान, शास्त्री एवं रामायणी आदि-आदि बनते हैं। यही क्रम क्रमशः सत्ययुग से आज कलियुग तक चला आया है। आज भी यही दशा हो रही है।
जड़वादी धारणा वाले जड़ एवं भूत के सिवाय चेतन (आत्मा) और कर्त्ता-भर्त्ता-हर्त्ता (परमात्मा) को तो वर्तमान में अपने अभिमान एवं अहंकार के कारण कुछ समझते ही नहीं हैं। इन लोगों को
जीव               आत्मा                         परमात्मा
ॐ-अहम् ब्रम्हास्मि   दिव्य ज्योति रूप शिव-हँसो        परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम्
स्वाध्याय           अध्यात्म-साधना (योग)           तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान
स्वाध्यायी          आध्यात्मिक महात्मा (योगी)       भगवदवतारी, पूर्णावतारी
आनन्द            चिदानन्द                       सच्चिदानन्द
सूक्ष्म              चेतन-कारण                    (परम कारण) कर्त्ता-भर्त्ता-हर्त्ता
आनन्द             कल्याण                       परमकल्याण
मान-सम्मान-सिद्धि    दिव्यत्त्व-महापुरुषत्त्व            मुक्ति और अमरता-सत्पुरुषत्व

इन उपर्युक्त के अन्तर व रहस्य समझ में तो आता नहीं परन्तु जड़तावश ये अपने मान-सम्मान व प्रतिष्ठा के सामने परमात्मा की भी कदर नहीं करते हैं और नहीं तो उनसे (परमात्मा से) टकराकर, संघर्ष कर इतने बड़े विद्वान होते हुये भी जड़ता, मूढ़ता एवं अन्धता आदि के माध्यम से असुर एवं शैतान की कोटी में पहुँच जाते हैं—जैसे रावण आदि।
जड़तावादियों का अपना कोई अस्तित्व तो होता नहीं कि ये लोग सद्ग्रंथों के पात्र बनें, कभी-कभी मौका भी मिलता है तो संघर्ष के माध्यम से राक्षसों और शैतानों की श्रेणी में आ जाते हैं। सद्ग्रंथ तो अवतारी सत्पुरुषों के नाम-गुण, कीर्ति, लीला एवं उपदेशों आदि पर तथा सन्त-महात्माओं, योगी-यतियों के साधनात्मक शोध और उपलब्धियों पर ही तैयार होते हैं जिनको पढ़कर तथा शोध कर ये लोग पी॰ एच॰ डी॰, दार्शनिक या विचारक आदि की उपाधि हासिल करते हैं। यदि इन जड़तावादियों के पास जरा सा भी विचार होता तो वे सब जरूर देखते कि सभी सद्ग्रंथ उन्ही अवतारी सत्पुरुषों, महात्माओं और साधनात्मक शोध करने वालों के ही हैं। अवतारियों के जीवन चरित्र तथा उपदेश और सिद्धों, योगियों तथा महात्माओं की साधनाओं, खोज (शोध) एवं उपलब्धियों आदि के सिवाय सद्ग्रंथ कुछ हैं ही नहीं। किसी भी सद्ग्रंथ में किसी भी मात्र विद्वान का कहीं भी जिक्र आता ही नहीं। यदि आता भी है तो मूढ़, जड़ी, अन्धा एवं असुर आदि उपाधियों के साथ ही आता है। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी ये लोग अवतारी सत्पुरुष से टकराये बिना नहीं मानते।
असल में इनके पास तो केवल कामिनी और कांचन वाली स्थूल दृष्टि तथा मूर्ति-मन्दिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारा तथा ग्रंथों वाली शिक्षा-दृष्टि ही रहती है। इसलिए ये लोग उसी स्तर तक देख पाते हैं। इन्हे आत्मा (ज्योति) हँसो-साधना तथा ध्यान वाली दिव्य दृष्टि तो प्राप्त रहती नहीं, इसलिए दिव्य दृष्टि वाले हँसो-साधना एवं दिव्य ज्योति वाले योगी महात्माओं को नहीं समझ पाते, जिसके कारण उनकी निन्दा एवं आलोचना आदि करते हैं और चौथे प्रकार की दृष्टि ज्ञान-दृष्टि या तत्त्व दृष्टि तो इनके पास बिल्कुल ही नहीं होती।
समस्त योगी-यतियों, साधकों-सिद्धों यहाँ तक कि नारद-ब्रम्हा-शंकरजी तक को भी तीसरी दृष्टि (दिव्य दृष्टि) वाला ही कहा जाता है, चौथी दृष्टि वाला नहीं। यह चौथी प्रकार की दृष्टि ज्ञान-दृष्टि, ज्ञान-चक्षु, तत्त्व-दृष्टि, बोध-दृष्टि, सम्यक-दृष्टि आदि मात्र परमतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा या खुदा-गॉड-भगवान के ही पास होती है जिसके माध्यम से परमात्मा वाली भगवदवतारी शरीर कार्य करती है। यह इस चौथी दृष्टि की बलिहारी (दया) ही होती है जिससे कि परमात्मा वाली (अवतारी) शरीर वर्तमान के सभी साधकों, योगी-यतियों, सिद्धों, महात्माओं, विद्वानों, नास्तिकों, वैज्ञानिकों, डाक्टरों, इंजीनियरों आदि समस्त लोगों को परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान जो कि शरीर नहीं बल्कि एक सर्वोच्च शक्ति-सत्ता है, जो परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् गॉड-अलम नाम रूप वाला है। जिसे जान पहचान लेने पर दुनिया में किसी को कुछ जानना-देखना-पाना शेष नहीं रह जाता है, को जनाने-दिखाने एवं बात-चीत करते हुये पहचान कराने का पूरा दायित्व (गारण्टी) ले लेता है और परम जिज्ञासुओं को उस भगवत्तत्त्वम् वाले परमात्मा को उसके परम रहस्य के सहित विज्ञान के द्वारा भी जनाता-दिखाता और बात-चीत करते हुये पहचान करा देता है। इसके लिए किसी भी प्रकार के भौतिक समान या साधना-प्रक्रिया की भी आवश्यकता नहीं पड़ता है। मात्र तत्त्व के द्वारा आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् को ही परम रहस्य के सहित, विज्ञान द्वारा भी जनाया एवं पहचान कराया जाता है। इसी तत्त्वज्ञान के माध्यम से परमात्मा के अवतार वाली शरीर की भी पहचान अच्छी प्रकार से हो जाती है।
परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता के मुख्यतः तीन अवतार पिछले युगों में श्रीविष्णु जी महाराज वाली शरीर से, श्री रामचन्द्र जी महाराज वाली शरीर से तथा श्री कृष्ण जी महाराज वाली शरीर से हो चुके हैं। तत्पश्चात् उसी परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता  का अवतरण पुनः भूमण्डल पर हो चुका है तथा उसी तत्त्वज्ञान वाली पद्धति से उसी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् का ज्ञान भी प्रदान हो रहा है जिसको जानने के लिए श्रीविष्णु जी महाराज, श्री रामचन्द्र जी महाराज एवं श्री कृष्ण जी महाराज भी कह गये हैं। उदाहरण स्वरूप पिछले पृष्ठों पर लिखे हुये प्रमाणों को ध्यान से देखेंगे तो इस प्रकरण में विद्वानों से अवतारियों तक की पहचान (ज्ञान) तथा अन्य सभी बातें स्पष्टतया समझ में आएँगी। अच्छा तो यह होगा कि आप यहाँ रुक कर उन प्रमाणों को एक बार पुनः पढ़ लें, तब आगे बढ़ें। ताकि स्पष्टतः समझ पकड़ में आ जाय।
समस्त विद्वान, शास्त्रीगण एवं कर्मकांडी पण्डितजन आदि ॐ को ही परमात्मा-परमेश्वर का नाम तथा उसी को ही परमात्मा का रूप भी स्वीकार करते हैं और प्रत्येक मन्त्र के आदि में ॐ ही लगाते हैं। जड़वादियों का उपदेश अधिकतर जदवादी शरीरों का हुआ करता है। जैसे ॐ रां रामाय नमः’, ॐ कृं कृष्णाय नमः’, ॐ हं हनुमते नमः’, ॐ शिवाय नमः या ॐ नमः शिवाय आदि। इन मंत्रों में ॐ के साथ जितने भी नामों (शब्दों) का प्रयोग हुआ है वे सभी किसी न किसी समय के शरीर के ही नाम हैं। जब वह शरीर उस समय शक्ति-सत्ता के साथ वर्तमान थी तो ऐसे ही लोगों ने उनसे संघर्ष और विरोध किया था और जब उस शरीर को छोड़कर वह शक्ति-सत्ता अपने धाम को चली गयी तो उसके बाद तथा आज उन्ही शरीरों के नामों को ॐ के साथ जोड़कर ये लोग मन्त्र कहकर देते-लेते हैं। इससे इन लोगों की जड़वादी और भूतवादी धारणा की पहचान स्पष्टतया हो जाती है। वर्तमान में भी इसी प्रकार के संघर्ष और विरोध चालू है। जयगुरुदेव, मुरारी बापू, आशाराम-सुधांशु आदि आदि सभी इसी ही वर्ग के तो हैं।
आदि काल से – नारद, ब्रम्हा और शंकर जी सहित समस्त महर्षिगण, योगी-यति, साधक-सिद्ध एवं महात्मा जनों ने दिव्य दृष्टि द्वारा हँसो तथा दिव्य-ज्योति को ही परमात्मा स्वीकार किया है। इन लोगों के द्वारा बतलाया गया कि हँसो की प्रक्रिया तथा ज्योति ही तत्त्वज्ञान और परमात्मा है जबकि ऐसी बात नहीं है। यह दिव्य ज्योति जीवात्मा (हँसो)(चेतन) है तथा उसी जीवात्मा (चेतन)(हँसो) के प्राप्ति की साधना है। समस्त योगी-यति एवं महात्माजन – नारद, शंकर, वशिष्ठ याज्ञवल्क्य आदि करते-कराते थे। वर्तमान में तो उर्ध्वमुखी हँसो के स्थान पर अधोमुखी-पतनोन्मुखी सोsहँ बताने कराने में श्रीबालयोगेश्वर जी, सतपाल, महर्षि मेंही जी, आनन्दमूर्ति जी आदि-आदि अजपा (श्वाँस-प्रश्वाँस द्वारा) जाप की प्रक्रिया एवं ध्यान के द्वारा थोड़ी-बहुत मात्रा में ज्योति दर्शाकर शास्त्रों से योगी-यतियों, साधकों एवं ऋषि-महर्षियों की बातों का प्रमाण दिखलाकर उसी हंस:-सोsहँ तथा ज्योति को परमात्मा के नाम रूप के स्थान पर बताते एवं दिखाते हैं और उसी को नाजानकारी अथवा भूल या भ्रमवश तत्त्वज्ञान घोषित करके आत्मा के स्थान (शरीर के अन्दर) को ही परमात्मा का स्थान घोषित कर देते हैं।
सत्ययुग से लेकर कलियुग तक लगभग सभी सद्ग्रन्थों शास्त्रों की रचना ऋषि-महर्षियों, योगी-साधकों एवं सिद्ध महात्माओं ने ही किया है। जिनमें आत्मा के नाम, रूप, गुणों एवं स्थान को ही परमात्मा का नाम, रूप, गुण एवं स्थान घोषित कर दिया है। अतः वर्तमान योगी, महात्माओं को इस प्रकार के प्रमाण बहुत मात्रा में मिल जाते हैं।
उपर्युक्त दो वर्गों के धर्मोपदेशकों के परमात्मा सम्बन्धी धारणाओं के बाद एक तीसरा वर्ग भी आता है जिसे अवतारी कहा जाता है। अब तक मुख्य (प्रधान) रूप से इस वर्ग के अन्तर्गत तीन सत्पुरुषों के ही नाम आते हैं और वे हैं— श्रीविष्णु जी महाराज, श्री रामचन्द्र जी महाराज और श्री कृष्ण जी महाराज। चौथा भी अवतार तो हो ही चुका है परन्तु वह नाम बाद में आयेगा। इस वर्ग के लोगों की धारणा एकमात्र परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् की ही होती है। ये तत्त्व के द्वारा तत्त्व को ही जनाने, दिखाने एवं पहचान कराते हुये प्राप्त करने-कराने की बात करते हैं। इस वर्ग के लोग सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं सर्वोत्तम् होते हैं, क्योंकि इनके शरीर से परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोत्तम शक्ति-सत्ता स्वयं कार्य करता है। यही लोग पुरुषोत्तम और अवतारी भी घोषित होते हैं। इन लोगों को ॐ तथा सोsहँ-हँसो-शिव ज्योति और तत्त्वज्ञान—तीनों का परमरहस्य सहित जानकारी होती है। ये लोग तत्त्व से सोsहँ और सोsहँ से ॐ को उत्पन्न तथा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही ॐ और हँसो को तत्त्व में ही विलय करा कर भी दिखा देते हैं।
प्रथम वर्ग यानी जड़वादी धारणा वाले लोगों को यह गलतफहमी या भ्रम होता है कि जप, तप, व्रत, नियम, उपवास, यज्ञ, तीर्थस्नान, दान, हवन, मूर्तिपूजा, सद्ग्रंथों के पाठ, योग तथा मुद्राओं आदि की साधना से मुक्ति मिलती है। ऐसी बात बिल्कुल ही नहीं है। कर्मों से मुक्ति का सवाल ही कहाँ उठता है क्योंकि मुक्ति में कर्म एक बहुत बड़ा बाधक का कार्य करता है। यही कारण है कि श्रीविष्णु जी, श्रीराम जी, श्रीकृष्ण जी तथा आद्यशंकराचार्य जी आदि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि कर्मों से मुक्ति कदापि नहीं हो सकती है। श्रीकृष्ण जी महाराज ने तो कर्म को तथा इसके फल को भी त्याज्य कर्म एवं भोग की संज्ञा दिया है। इन्होने तो यहाँ तक भी कहा है कि यदि वेदों में भी कर्म की महिमा मिलती हो तो तत्त्वज्ञानियों को उसकी व्याख्या के चक्कर में बिल्कुल भी नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि कर्म फँसाने वाली ही होते हैं। प्रमाण स्वरूप श्रीविष्णु जी, श्रीकृष्ण जी एवं आद्यशंकराचार्य जी आदि की वाणियों को देखें –

श्रीविष्णु जी महाराज जी की वाणी
(गरुड़ पुराण के अध्याय 16 से)

स्वदेहमपि जीवोsयं मुक्तैवायाति यमालयम्।
स्त्री मातृपितृ पुत्रादि सम्बन्ध: केन हेतुना।।
(गरुड़ पुराण १६/४५)
यह जीव जब अपने शरीर को ही छोड़ कर यमालय चला जाता है तो फिर माता-पिता, स्त्री और पुत्रादि का तो सम्बन्ध ही क्या रहता है?

दु:ख मूलं हि संसार: स यस्यास्ति स दु:खित:।
तस्य त्याग: कृतो येन स सुखी नापर: क्वचित्।।
(गरुड़ पुराण १६/४६)
यह संसार दु:खों का मूल है। इसलिए जिसको इस संसार में आसक्ति हो रही है, उसी को भय और दु:ख है और जिसने इस संसार का त्याग कर दिया है वही सुखी है। अतः संसार को त्यागे बिना कोई कभी भी सुखी नहीं हो सकता है।

प्रभवं सर्वदु:खानामालयं सकलापदाम्।
आश्रयं सर्वपापानां संसारं वर्जयेत्क्षणात्।।
(गरुड़ पुराण १६/४६)   

यह संसार सब दु:खों को उत्पन्न करने वाला है, सब आपत्तियों का घर है और सब पापों का आश्रय है। इसलिए संसार को शीघ्र ही त्याग देना चाहिए है।

मांस लुब्धो यथा मत्स्यो लोह शंकु न पश्यति।
सुख लुब्धस्तथा देही यमपाशं न पश्यति।।
(गरुड़ पुराण १६/५१)

जिस प्रकार मांस का लोभी मछ्ली लोहे के कांटों को नहीं देख पाती, उसी प्रकार सुख का लोभी यह देहधारी जीव यमराज की फांस-पीड़ा को नहीं देखता है।

हिताहितं न जान्नतो नित्यमुन्मार्ग गामिन:।
कुक्षिपूरण निष्ठा ये ते नरा नारका: खग।।
(गरुड़ पुराण १६/५२)
हे गरुड़ ! जो अपने हित-अहित को न जानते हुये सदा कुमार्ग में चलने वाले केवल अपना पेट भरने वाले हैं, वे नरक में जाकर गिरते हैं।

निद्रादि मैथुनाहाराः सर्वेषां प्राणीनां समाः ।
ज्ञानवान्मानवः प्रोक्तो ज्ञानहीनः पशुः समृतः ॥
(गरुड़ पुराण १६/५३)
खाना, पीना, सोना, जागना, भय और मैथुन ये सब सभी प्राणीयों में एक से हैं परन्तु जो ज्ञानवान् हैं, वहीं मनुष्य है और जो ज्ञान रहित है वे मनुष्य पशु के समान हैं।

स्वदेहधनदारादिति रताः सर्व जन्तवः ।   
जायन्ते च म्रियन्ते च हा हन्ताज्ञानमोहताः ॥
(गरुड़ पुराण १६/५५)
हाय ! बड़े दुःख की बात है कि अज्ञान से मोहित हुये संसारी जीव अपनी देह, धन और स्त्री आदि में फँसे हुये बार-बार जन्मते और मरते रहते हैं, कभी भी मुक्त नहीं होते।

तस्मात्सङ्ग: सदा त्याज्य: सर्वस्त्यक्तुं न शक्यते ।
महद्भिः सहकर्त्तव्यः संतः संगस्य भेषजम् ॥
(गरुड़ पुराण १६/५६)
इसलिए हे गरुड़ ! दुनियादारी का संग सर्वथा छोड़ देना चाहिए। यदि सब न छोड़ा जा सके, तो सन्त महापुरुषों का संग करना चाहिए, क्योंकि सत्संग भवसागर से पार करने की सबसे बढ़कर औषधि है।

सत्संगश्च विवेकश्च निर्मलं वचनद्वयम् ।
यस्य नास्ति नरः सोsन्ध: कथं न स्यादमार्गगः ॥
(गरुड़ पुराण १६/५७)
संसार में सत्संग और ज्ञान – ये दो ही निर्मल नेत्र हैं। जिस पुरुष के पास ये दो निर्मल नेत्र नहीं हैं, वह पुरुष अन्धा ही है, फिर क्यों न वह कुमार्गगामी होगा।

स्वस्ववर्णाश्रमाचार निरता: सर्वमानवाः ।
न जानन्ति परम धर्म वृथा नश्यन्ति दांभिका ॥
(गरुड़ पुराण १६/५८)
सभी मनुष्य अपने-अपने वर्ण और आश्रम (ब्रम्हचर्याश्रम, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम) के आचार में ही लगे हुये रहते हैं। इस कारण परमधर्म-मोक्ष को नहीं जान पाते। इसलिए ऐसे ढोंगी जिन्होने कि आचार में अपना सारा जीवन बिताया है, वे अन्त में व्यर्थ ही मारे जाते हैं, परमतत्त्वम् को नहीं जान पाते।

क्रियायास पराः केचिद् व्रतचर्यादि संयुताः ।
अज्ञान संवतात्मानः संचरन्ति प्रतारकाः ।।
(गरुड़ पुराण १६/५९)
कोई तो कर्म-काण्ड में ही लगे रहते हैं, और कुछ लोग व्रत तथा उपवास में लगे रहते हैं। ऐसे अज्ञानी ठगिया-छलिया पुरुष संसार में घूमते रहते हैं।

नाममात्रेण संतुष्टा: कर्मकाण्डरताः नराः ।
मंत्रोंच्चारण होमाद्यैर्भ्रामिताः क्रतुविस्तरै: ।।
(गरुड़ पुराण १६/६०)
जो केवल अपना नाम कमाने में ही प्रसन्न होते हुये कर्म-काण्ड में लगे रहते हैं, ऐसे पुरुष मंत्रोच्चारण, होम आदि के द्वारा यज्ञों के विस्तार के भ्रम में ही पड़े रहते हैं।

एकभुक्तोपवासाद्यैर्नियमै: काय शोषणै: ।
मूढ़ा: परोक्षमिच्छन्ति मम माया विमोहिताः ॥
(गरुड़ पुराण १६/६१)
मेरी (श्रीविष्णुजी की) माया से मोहित हुये कुछ मूर्ख मनुष्य ऐसे भी हैं जो दिन में एक बार भोजन करना और उपवास आदि शरीर के सुखाने वाले नियमों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं।

देह दण्डेन मात्रेण का मुक्तिर विवेकिनाम् ।
वल्मीक ताडनादेव मृतः कुत्र महोरग: ॥
(गरुड़ पुराण १६/६२)
अज्ञानी लोगों को क्या देह को दण्ड (कष्ट) देने से मुक्ति मिल सकती है? क्या चींटी के ताड़ने से भारी अजगर साँप मारा जा सकता है? अर्थात् नहीं।

जटाभाराजिनैर्युक्ता दांभिका वेष धारिण: ।
भ्रमन्ति ज्ञानिवल्लोके भ्रामयन्ति जनानपि ॥
(गरुड़ पुराण १६/६३)
कुछ लोग जटाओं के भार और मृगचर्म को लादे हुये साधू महात्माओं का सा वेष बनाये हुये (वेष धारण किए हुये) ढोंगीजन, ज्ञानियों की तरह संसार में विचरते हैं और दूसरे लोगों को भी भ्रम में डालते रहते हैं ।

संसारज सुखासक्त ब्रम्हज्ञोsस्मीति वादिनम् ।
कर्म ब्रम्होभय भ्रष्टं तं त्यजेदत्त्यजं यथा ॥
(गरुड़ पुराण १६/६४)
संसार केआर सुखों में फँसे हुये और मैं ब्रम्हज्ञानी हूँ इस तरह कहने वाले कर्म और ब्रम्ह दोनों से भ्रष्ट हुये ऐसे पुरुषों को चाण्डल कि तरह त्याग देना चाहिए।

गृहरण्य समालोके गत ब्रीणा दिगम्बरा।
चरन्ति गर्दभाद्याश्च विरक्तास्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण१६/६५)
जिन्होंने घर और वन को समान (एक जैसा) मान रखा है तथा जो बेशर्म होकर स्त्रियों के बीच में गधा आदि की तरह नितंग नग्न घूमते रहते हैं, क्या वे विरक्त हो सकते हैं?

मृदभस्मोद् धूलनादेव मुक्ता: स्युर्यदि मान्वा:।
मृदभस्मवासी नित्यं श्वान: किंमुक्तो भविष्यति।।
(गरुड़ पुराण १६/६६)
यदि मिट्टी और भस्म लपेटने से ही मनुष्य मुक्त हो जाता तो फिर क्या इस मिट्टी और भस्म में नित्य पड़े रहने वाला कुत्ता क्यों नहीं मुक्त हो जाता?

तृणपर्णोदकाहार: सततं वनवासिन:।
जम्बुकाssखुमृगद्याश्च तापसास्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण १६/६७)

तिनका, पत्ता और जल का आहार करने वाले और निरंतर जंगल में ही रहने वाले मनुष्य यदि तपस्वी हो जायेँ, तो फिर क्या वे गीदड़, चूहे और हिरण आदि तपस्वी क्यों नहीं हो सकते?

आजन्म मरणान्तं च गंगादि तटनीस्थिता:।
मण्डूक मत्स्य प्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण १६/६८)
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते?

पारावता: शिलाहारा: कदाचिदपि चातका:।
न पिबन्ति महीतोयं ब्रतिनस्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण १६/६९)
ककड़-पत्थर खाने वाला कबूतर और धरती के जल को कभी न पीने वाले चातक क्या व्रती हो सकते हैं?
तस्मादित्यादिकं कर्म लोरंजनकारकम्।
मोक्षस्य कारणं साक्षात् तत्त्वज्ञान खगेश्वर।।
(गरुड़ पुराण १६/७०)
इसलिये हे पक्षीराज गरुड़! ये सब कर्म तो लोक को प्रसन्न करने वाले हैं, मोक्ष का कारण तो साक्षात् तत्त्वज्ञान ही है।

शड्दर्शन महाकूपे पतिता: पशव: खग।
परमार्थ न जानन्ति पशु पाशनियंत्रिता:।।
(गरुड़ पुराण १६/७१)
हे गरुड़! छः दर्शन रूपी बड़े भारी कुआँ में गिरे हुये पशु पुरुष परमार्थ तत्त्व को नहीं जान सकते, क्योंकि वे पशु पाशों में बँधे रहते हैं।

वेद शास्त्रार्णवे घोरे उह्यांमाना इतस्ततः ।
षडूर्मिनिग्रह ग्रस्तास्तिष्ठन्ति हि कुतार्किका:।।
(गरुड़ पुराण १६/७२)

वेद और शास्त्र रूपी बड़े भारी अथाह समुद्र में पड़े हुये ग्रन्थान्तरों के पढ़ने से इधर-उधर भटकने वाले मोह, जरा, मृत्यु आदि से ग्रसे हुये कुतर्क के कारण अद्वैत्तत्त्व को नहीं जान पाते, केवल कुतर्क ही करते रहते हैं।

वेदागमपुराणज्ञ: परमार्थ न वेत्ति य:।
विडम्बकस्य तस्यैव तत्सर्वं काकभाषितम्।।
(गरुड़ पुराण १६/७३)
वेद पुराणों को जानता हुआ भी जो पुरुष परमार्थ तत्त्व को नहीं जानता ऐसे उस विडम्बक का वह पढ़ना और बोलना सब कौवा की केवल टाँय-टाँय ही है।

वाक्यच्छ्न्दो निबंधेन काव्यालंकार शोभित:।
चिन्तया दु:खिता मूढास्तिष्ठन्ति व्याकुलेन्द्रिया:।।
(गरुड़ पुराण १६/७३)

कुछ मनुष्य (विद्वान पण्डित) वाक्य और छंद के निबन्ध से, काव्य और अलंकार से सुशोभित हुये कविपनें के अभिमान में भरे हुये यह पद ठीक नहीं है, यहाँ यह छंदोभंग दोष हो जायेगा आदि विचार में ही व्याकुल रहते हैं फिर भी परमतत्त्वम् को नहीं जानते।

अन्यथा परमतत्त्वं जनाः क्लिश्यन्ति चान्यथा।
अन्यथा शास्त्रसद्भावो व्याख्यां कुर्वन्ति चान्यथा।।
(गरुड़ पुराण १६/७६)

परमतत्त्वम् तो अन्यथा (और ही प्रकार से) होता है, उसके सत्य रूप को न जानकर उसके विषय में अन्यथा कुतर्क कर करके क्लेश पाते रहते हैं। उसी प्रकार शास्त्र का सद्दभाव तो दूसरा ही है और उसकी व्याख्या लोग दूसरे प्रकार से करते हैं।

पठन्ति वेद शास्त्राणि बोधयन्ति परस्परम्।
न जानन्ति परमतत्त्वं दर्वीपाकरसं यथा।।
(गरुड़ पुराण १६/७८)
वेद और शास्त्रों को पढ़ते रहते है तथा आपस में समझाते भी रहते हैं, किन्तु इतने पर भी वे परमतत्त्वं को नहीं जान पाते हैं। जैसे करछुलि (चमचा) दालसब्जी के रस (स्वाद) को नहीं जान पाती है।

प्रज्ञाहीनस्य पठनं यथान्धस्य च दर्पणम्।
अतः प्रज्ञावतां शास्त्रम् तत्त्वज्ञानस्य लक्षणम्।।
(गरुड़ पुराण १६/८२)

ज्ञानहीन पुरुष का ग्रन्थ-शास्त्र पढ़ना ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार कि अन्धे का दर्पण देखना है। इसीलिए ज्ञान से युक्त सद्ग्रन्थों का तत्त्वज्ञान का लक्षण होता है, ऐसा समझना चाहिए।

न वेदाध्ययनान्मुक्तिर्न शास्त्र पठनादपि।
ज्ञानादेव हि कैवल्यं नान्यथा विनतात्मज।।
(गरुड़ पुराण १६/८७)
मुक्ति न वेदों के पढ़ने से होती है और न शास्त्रों के पढ़ने से। मुक्ति तो हे गरुड़ ! एक मात्र ज्ञान-तत्त्वज्ञान से ही प्राप्त होती है।

नाश्रम: कारणं मुक्तेर्दर्शनानि न कारणम्।
तथैव सर्व कर्माणि ज्ञानमेव हि कारणम्।,
(गरुड़ पुराण १६/८८)

मुक्ति का कारण न तो आश्रम (ब्रम्हचर्यादि चार आश्रम) ही है, न दर्शन शास्त्र ही है और न सब कर्म ही है। मुक्ति का कारण तो एक मात्र या केवल तत्त्वज्ञान ही है।

तावत्तपो व्रतं तीर्थं जप होमार्चनादिकम्।
वेदशास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
(गरुड़ पुराण १६/९८)
तब तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि हैं तथा तब तक ही वेदशास्त्र और आगमों की कथा है जब तक कि तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता; तत्त्वज्ञान प्राप्त होने पर ये सब कुछ भी नहीं रह जाते हैं।

श्री कृष्ण जी महाराज की वाणी
(श्रीमद्भागवत् महापुराण से)
   
कर्माणि दु:खोदर्काणि कुर्वन देहेन् तै: पुनः।
देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिण:।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ११/१०/२९)
जिनके भी सकाम और बहिर्मुख करने वाले कर्म हैं, उनका फल दु:ख ही है। जो जीव शरीर में अहंता-ममता करके उन्हीं में लग जाता है, उसे बार-बार जन्म पर जन्म और मृत्यु पर मृत्यु प्राप्त होती रहती है। ऐसी परिस्थिति में मृत्युधर्मा जीव को क्या सुख हो सकता है?

लोकानां लोकपालनां मद्भयं कल्पजीविनाम्।
ब्रम्हणोsपि भयं मत्ते द्विपरार्धपरायुष:।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ११/१०/३०)
सारे लोक और लोकपालों की आयु भी केवल एक कल्प है। इसलिए मुझसे भयभीत रहते हैं। औरों की बात ही क्या, स्वयं ब्रम्हा भी मुझसे भयभीत रहते हैं क्योंकि उनकी आयु भी काल से सीमित-दो परार्द्ध है।

शब्द ब्रम्हाणि निष्णातो निष्णायात् परे यदि।
श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ११/११/१८)
प्यारे उद्धव! जो पुरुष वेदों का तो परगामी विद्वान हो परन्तु परमब्रम्ह के ज्ञान से शून्य हो, उसके परिश्रम का कोई फल नहीं हैं। वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूध का गाय पालने, वाला।

यं न योगेन सांख्येन दानब्रततपोध्वरै: ।
व्याख्यास्वाध्याय संन्यासै: प्राप्नुयाद् यत्नवानपि ॥
(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१२/९)
उद्धव ! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और सन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते, परन्तु सत्संग के द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ।

मन्माया मोहितधिय: पुरुषा: पुरुषर्षभ ।
श्रेयोवदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि ॥
(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१४/९)
प्यारे उद्धव ! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है; इसी से वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार आत्मकल्याण के साधन भी एक नहीं, अनेकानेक बतलाते हैं।

धर्ममेके यशश्चान्ये कामं सत्यं दशम् शमम् ।
अन्ये वदन्ति स्वार्थ वा ऐश्वर्य त्याग भोजनम् ॥
(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१४/१०)
पूर्व मीमांसक धर्म को, साहित्याचार्य यश को, कामशास्त्री काम को, योगवेत्ता सत्य और शम-दमादि को, दण्डनीतिकार ऐश्वर्य को, त्यागी त्याग को और लोकायतिक भोग को ही मनुष्य-जीवन का स्वार्थ-परमलाभ बतलाते हैं।

केचिद् यज्ञ तपोदानं व्रतानि नियमान् ।
आद्यन्वन्त एवैषां लोकाः कर्म विनिर्मिताः ॥
दुःखोदर्कास्तमोनिष्ठा: क्षुद्रानन्दा: शुचार्पिताः ।
(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१४/११)
कर्मयोगी योग यज्ञ, दान, व्रत तथा यम-नियम आदि को पुरुषार्थ बतलाते हैं परन्तु ये सभी कर्म हैं। इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाश वाले हैं। कर्मों का फल समाप्त हो जाने पर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पुछो तो उनकी अन्तिम गति घोर-अज्ञान ही है। उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ है- नगण्य है और वे लोक-भोग के समय भी असूया आदि दोषों के कारण शोक से परिपूर्ण हैं। (इसलिए इन विभिन्न साधकों के फेर में नहीं पड़ना चाहिए)
                
श्री कृष्ण जी महाराज की वाणी
(श्रीमद् भगवद् गीता से)
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ११/५३)
हे अर्जुन ! न वेदों से, न तप से, न दान से और न किसी क्रिया-योग साधना से ही इस प्रकार तत्त्वरूप वाला मैं देखा जाने को शक्य हूँ कि जैसे मेरे को तुमने देखा है।

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोsर्जुन ।
ज्ञातु द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ११/५४)
हे परमतप वाले अर्जुन ! अनन्य भक्ति भक्ति करके तो इस तत्त्व रूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्त्व को जानने के लिए तथा तत्त्व में ही प्रवेश करने के लिए तत्त्व द्वारा ही शक्य हूँ।
     

श्री आद्यशंकराचार्य जी की वाणी
(विवेक चूड़ामणि से)

वदन्तुशास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तुदेवता:।
आत्मैक्यबोधेनविना विमुक्तिर्न सिध्यतिब्रम्हशतान्तरेsपि।।
(विवेक चूड़ामणि--६)
भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का भजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवताओं को भजे, तथापि जब तक आत्मा और परमात्मा की एकता का बोध नहीं होगा, तब तक सौ ब्रम्हा के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी) मुक्ति नहीं हो सकती।

न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्या।
ब्रम्हात्मैकत्वबोधे न मोक्ष: सिध्यति नान्यथा।। 
(विवेक चूड़ामणि----५८)
मोक्ष न योग से प्राप्त (सिद्ध) होता है और न सांख्य से; न कर्म से और न विद्या से। केवल बह्यत्मैक्य बोध (ब्रम्ह और आत्मा की एकता के बोध) से ही होता है और किसी प्रकार नहीं।

वाग्वैखरी शब्दझरीशास्त्रव्याख्यान कौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्द्भुक्तये न तु मुक्तये।।
(विवेक चूड़ामणि—६०)
विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्या की कुशलता और विद्वत्ता, भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं।

अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।
विज्ञातेsपिपरेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।।
(विवेक चूड़ामणि---६१)
परमतत्त्वम् को यदि न जाना तो शास्त्रायध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्वम् को जान लिया तो भी शास्त्र अध्यन निष्फल (अनावश्यक) ही है।

शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—६२)
शब्द जाल (वेद-शास्त्रादि) तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् बन है, इस लिए किन्हीं तत्त्व ज्ञानी महापुरुष से यत्न पूर्वक आत्मतत्त्वम् को जानना चाहिए।
अकृत्वा दृश्यविलमज्ञात्वा तत्त्वमात्मनः।
बाह्य शब्दै: कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम्।।
(विवेक चूड़ामणि—६५)
विना दृश्य प्रपंच का विलय किये और बिना आत्मतत्त्वम् को जाने, केवल बाह्य शब्दों से जिनका फल केवल उच्चारण मात्र ही है, मनुष्यों की मुक्ति कैसे हो सकती है?

अंगिरा जी की वाणी
(मुण्डकोपनिषद् से)

तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति हस्म यद्ब्रम्हविदो वदन्ती परा चैवापरा च।।
(मुण्डकोपनिषद् १/१/४)
शौनक जी से पूछने पर महर्षि अंगिरा जी बोले, शौनक! ब्रम्ह को जानने वाले महर्षियों का कहना है कि मनुष्य के लिए जानने योग्य दो विद्याएँ हैं---एक तो परा और दूसरा अपरा।

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोsथर्ववेद: शिक्षा कल्पो व्याकरणम् निरुक्तं छंदो ज्योतिषमिति। अथ परा यथा तदक्षरमधिगम्यते।।
(मुण्डकोपनिषद् १/१/५) 
व्याख्या—उन दोनों में से जिनके द्वारा इस लोक और परलोक सम्बन्धी भोगों तथा उनकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, जिसमें भोगों की स्थिति, भोगों के उपयोग करने के प्रकार, भोग सामग्री की रचना और उनको उपलब्ध करने के नाना साधन आदि का वर्णन है, वह तो अपरा विद्या है। जैसे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद---ये चारों वेद। इनमें नाना प्रकार के यज्ञों के विधि का और उनके फल का विस्तारपूर्वक वर्णन है। जगत् के सभी पदार्थों का एवं विषयों का वेदों में भली-भाँति वर्णन किया गया है। वेदों का पाठ अर्थात् यथार्थ उच्चारण करने की विधि का उपदेश शिक्षा है। जिसमें यज्ञ-योग आदि की विधि बतलायी गयी है उसे कल्प कहते हैं। (गृह्य-सूत्र आदि की गणना कल्प में ही है)। वैदिक और लौकिक शब्दों के अनुशासन का-प्रकृत-प्रत्यय-विभागपूर्वक शब्द साधन की प्रक्रिया, शब्दार्थ बोध के प्रकार एवं शब्द प्रयोग आदि के नियमों के उपदेश का नाम व्याकरण है। वैदिक शब्दों का जो कोष है जिसमें अमुक पद अमुक वस्तु का वाचक है—यह बात कारण सहित बताई गयी है, उसको निरुक्त कहते हैं। वैदिक छंदों की जाति और भेद बतलाने वाली विद्या छंद कहलाती है। ग्रह और नक्षत्रों की स्थिति-गति और उसके साथ हमारा क्या सम्बन्ध है---इन सब बातों पर जिसमें विचार किया गया है वह ज्योतिष विद्या है। इस प्रकार ४ वेद और छः वेदांग अपरा विद्या है और जिसके द्वारा परमब्रम्ह अविनाशी परमात्मा का तत्त्वज्ञान होता है वह पराविद्या है। उसका वर्णन भी वेदों में ही है, अतः उतने अंश को छोड़कर अन्य सब वेद और वेदांगों को अपरा विद्या के अन्तर्गत समझना चाहिए।
अपरा का नाम अविद्या है और परा का विद्या है अर्थात् परा को विद्या और अपरा को अविद्या भी कहते है।

अविद्यायामंतरे वर्तमाना: स्वयंधीरा: पण्डितं मन्यमाना:।
जंघन्यमाना: परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:।।
(मुण्डकोपनिषद् १/२/८)
व्याख्या:- जब अन्धे मनुष्य को मार्ग दिखलाने वाला भी अंधा मिल जाता है तब जैसे वह अपने अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुँच पाता, बीच में ही ठोकरें खाता-भटकता है, वैसे ही उन मूर्खो को भी पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि विविध दु:ख पूर्ण योनियों में एवं नरकादि में प्रवेश करके अनन्त जन्मों तक अनन्त यन्त्रणाओं का भोग करना पड़ता है, जो अपने आप को ही बुद्धिमान और विद्वान समझते हैं, विद्या-बुद्धि के मिथ्याभिमान में शास्त्रों और महापुरुषों के वचनों की कुछ भी परवाह न करके उनकी अवहेलना करते हैं और प्रत्यक्ष सुख रूप प्रतीत होने वाले भोग का भोग करने में तथा उनके उपार्जन में ही निरन्तर संलग्न रहकर मनुष्य जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ नष्ट करते रहते है।
(मुण्डकोपनिषद् १/२/८ तथा १/२/५)
अतः पाठक बंधुओं को उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट हो गया होगा कि परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् को जाने बिना मुक्ति कदापि नहीं मिल सकती है और परमतत्त्वम् की प्राप्ति भी परमात्मा की विशेष कृपा के बिना किसी भी कर्म, योग, सांख्यया मुद्राओं से भी संभव नहीं है। जब परम आकाश रूप परमधाम का वासी परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूपी परमात्मा भू-मण्डल पर अवतरित होकर किसी शरीर को धारण कर तत्त्वज्ञान के द्वारा जिसे अपनी जानकारी, साक्षात् दर्शन एवं पहचान करा देते हैं, वही उनकी (परमात्मा की) जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान कर पाता है। परमात्मा के सिवाय परमात्मा को जानने वाला कोई होता ही नहीं और यदि जो कोई उसे जानता हो, वह भी वही होगा। इसमें संदेह की गुंजाइश ही नहीं है।   


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