आत्मिक एवं साधनात्मक धारणा


2-आत्मिक एवं साधनात्मक धारणा
(The Concept of Spiritual Transaction)

आत्मा-ईश्वर की प्राप्ति से सम्बंधित विचारधारा एवं क्रियाओं-प्रक्रियाओं को आत्मिक या साधनात्मक धारणा कहते हैं। अधिकतर सद्ग्रन्थों की रचना इसी धारणा वाले लोगों द्वारा हुई है। सृष्टि की रचना दो वस्तुओं के मेल से हुयी है, जड़ और चेतन। जड़ के अन्तर्गत पंच पदार्थ तत्त्व---आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल आते हैं। इन्हीं पंच पदार्थ तत्त्वों से बनी विभिन्न रूप-आकृति ही सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् है, जिसमें मानव-शरीर सर्वोत्तम आकृति है। यह देव-दुर्लभ है। जीव के लाखों-करोड़ों योनियों के संचित-पुण्यों के फलस्वरूप परमप्रभु की अहेतुकी कृपा से कहीं यह शरीर प्राप्त होता है। यही कारण है कि चेतन की जानकारी रखने वाले ऋषि-महर्षि एवं महात्मागण जड़ प्रधान (सांसारिक) व्यक्तियों को बारम्बार संचेत करते रहते हैं कि हे मानव बंधुओं! आप चेतन हो, जड़-शरीर एवं जड़-संसार (कामिनी-कांचन) में मत फँसो। कीट-पतंग आदि चौरासी लाख योनियों से भटकते आए हो। यह मानव-शरीर आपको मुक्त होने और अमरता पाने के लिए ही मिलती है। यदि इससे मुक्ति और अमरता को प्राप्त नहीं कर लेते हैं तो पुनः उन्हीं कीट-पतंग, शूकर-कूकर आदि चौरासी लाख योनियों में करोड़ों वर्ष तक भटकना पड़ेगा। आप क्षणिक भौतिक सुखों पर मोहित न हों। (चेतन से सम्बंधित एक अध्याय ही आगे आने वाला है, इसी से अब इस विषय को यहीं बंद किया जा रहा है। वृहद-विवेचना इस पुस्तक के अगले अध्याय में देखें।)

परमात्मा के नाम-रूप स्थान तथा परिचय-पहचान आदि से सम्बंधित धारणाओं के अन्तर्गत जड़वादी-धारणा वाले लोगों की प्रथम श्रेणी (वर्ग) के बाद चेतनवादी अथवा आत्मिक एवं साधनात्मक धारणा वाले दूसरी श्रेणी के लोग हैं। इसी श्रेणी के अन्तर्गत आने वाले लोगों की भी एक बहुत बड़ी संख्या है। हालाँकि इस श्रेणी के लोग भू-मण्डल पर निरन्तर कायम रहते हैं परन्तु जब-जब अवतार का समय होता है, इनकी संख्या में काफी वृद्धि हो जाती है। जड़वाद में जकड़े हुये समाज को जड़ से चेतन की तरफ, परमात्मा के नाम-रूप पर मोड़ने में ये लोग काफी परिश्रम के साथ पूर्ण समर्पण भाव से सतत् प्रयत्नशील रहते हैं।
आत्मिक एवं साधनात्मक धारणा के अन्तर्गत साधारण साधना करने वाले लोगों से लेकर उच्चतम् कोटि के ऋषि-महर्षि और शंकर जी भी आते हैं। इस श्रेणी के समस्त लोग जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा मानते हैं। तथा जीव के आत्मा से मिलने की प्रक्रिया को ही तत्त्वज्ञान मान बैठते हैं। पतनोन्मुखी सोsहँ-उर्ध्वमुखी हँसो का (श्वाँस प्रश्वाँस द्वारा) जाप की प्रक्रिया तथा दिव्य दृष्टि के माध्यम से ज्योति का दर्शन ही इनकी एकमात्र उपलब्धि होती है; तथा सहायक के रूप में ये लोग खेँचरी, भ्रामरी, अनहद, शीतली, शीतकारी, काकी और शाम्भवी आदि मुद्राओं को भी किया कराया करते हैं। भ्रमवश ये लोग पतनोन्मुखी सोsहँ-उर्ध्वमुखी हँसो और दिव्य-ज्योति को ही आत्मा-ईश्वर से नीचे जीव और आत्मा-ईश्वर से ऊपर परमात्मा-परमेश्वर का नाम-रूप बताते हैं; जब कि यह जीवात्मा से सम्बंधित नाम रूप है। इस सोsहँ और ज्योति की उत्पत्ति जहाँ (आत्मतत्त्वम् शब्दरूपी परमात्मा) से होती है, वह परमात्मा कहलाता है, जिसकी यथार्थ जानकारी परमात्मा के अवतार वाली शरीर के अतिरिक्त किसी को, यहाँ तक कि शंकर जी आदि को भी नहीं रहती है, अन्यों की तो बात ही क्या किया जाय।
आत्मिक साधना एक प्रकार का आन्तरिक साधना पद्धति होती है। शरीर से बाहर इन लोगों की कोई जानकारी नहीं होती है। आत्मा श्वाँस के माध्यम से जब शरीर के अन्दर पहुँच जाती है तब इन महापुरुषों का इसके बारे में अध्ययन प्रारम्भ होता है और इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत्, विशुद्ध, आज्ञा, सहस्रार आदि की जानकारी प्राप्त करते हैं। इस प्रकार इन लोगों का पैर मोड़ना (आसन), हाथ जोड़ना (मुद्रा), आँख मूँदकर आज्ञा चक्र पर देखना (ध्यान), कान मूँदना (अनहद नाद) जीभ उलटना (खेंचरी मुद्रा), स्वाँस-प्रश्वाँस को देखना-अजपा जाप आदि समस्त यौगिक क्रियाएँ शरीर के अन्दर ही की जाती हैं। अर्थात् सभी इन्द्रियों को यथास्थान बन्द कर जीव को श्वाँस-प्रश्वाँस में लगा दिया जाता है जिससे आत्मा जीव की ओर पतनोन्मुखी सोsहँ जो सहज ही हो रहा है, व जीव आत्मा की ओर जिसे सक्षम गुरु के देख रेख सानिध्य में करना पड़ता है, उर्ध्वमुखी हँसो की क्रिया और चिदानन्द की अनुभूति होती है, तत्पश्चात् दिव्य दृष्टि के द्वारा ज्योति को देखा जाता है।
भ्रमवश, सतयुग से लेकर आज तक के समस्त देवी-देवता, ऋषि-महर्षि, योगी-यति, साधक, सिद्ध, महात्मा आदि इन्ही साधना-प्रक्रियाओं को ही तत्त्वज्ञान तथा सोsहँ-हँसो-सः और ज्योति को ही परमतत्त्वम् या आत्मतत्त्वम् या भगवत्तत्त्वम् रूपी परमात्मा मानकर इसी का उपदेश भी दिये हैं। इस्लाम में भी इसी सोsहँ-हँसो को पाक-नाम तथा ज्योति को नूर कहा जाता है तथा क्रिश्चियन (ईसाई) भी इसी को होली नेम (Holy Name) और डिवाइन लाइट कहते हैं और इसी को ये (मुस्लिम व ईसाई) अल्लाहतआला और गॉड (GOD) भी घोषित कर देते हैं। जबकि यह अज्ञानता मूलक भ्रम के सिवाय और कुछ भी नहीं है। अतः इन लोगों की सारी क्रियाएँ कूप-मंडूकवत् ही हैं अर्थात् शरीर कुआँ है और ये लोग उसमें के मंडूक (मेंढक) हैं। ये अपने शरीर रूपी कुएँ को ही ब्रम्हाण्ड रूपी समुद्र समझ बैठते हैं और जीव को ही आत्मा व आत्मा को ही परमात्मा कहने लगते हैं। इन महानुभावों को यह भी मालूम नहीं है कि जीव एवं आत्मा और परमात्मा एक ही का अलग-अलग नाम है या दो का अथवा तीनों का पृथक-पृथक है।
साधनाओं के माध्यम से सिद्धियाँ कार्य करती हैं जिसे साधारण जनता चमत्कार के नाम से जानती है। इन सिद्धियों के प्रयोग से व्यवहारिक प्रभाव एवं प्रचार-प्रसार तो बहुत होता है और बहुसंख्यक समाज जो प्रायः लोभी, लालची, स्वार्थी, एवं शिश्नोदर परायण या पेटू होता है, इनके पीछे-पीछे अनुयायी के रूप में चलने लगता है किन्तु इनका अन्तिम परिणाम सार रहित (लक्ष्यहीन, व्यर्थ) ही होता है क्योंकि सिद्धियों का प्रयोग ज्ञानमार्ग में तो करना ही नहीं है; योग मार्ग में भी सख्त वर्जित है; जो करता है उसे योगभ्रष्ट समझा जाता है। सामान्य समाज में तो सिद्धियाँ वाले चमत्कारिक महात्माओं की प्रतिष्ठा बढ़ती है परन्तु ज्ञानी और योगियों के समाज में इनकी प्रतिष्ठा समाप्त हो जाती है। साईं बाबा, भूतनाथ, अवधूतराम आदि सहित समस्त तान्त्रिक इसी श्रेणी के हैं। आज सिद्धियों के माध्यम से ही इनकी यश-प्रतिष्ठा कायम हुई है—हो रही है।

अतः जिस प्रकार जड़वादी धारणा वाले ॐ को ही परमतत्त्वम् या परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान कहते हैं, ठीक उसी प्रकार समस्त आत्मिक एवं साधनात्मक धारणा वाले सोsहँ-हँसो-सः एवं शिव-ज्योति को ही जीव-रूह-सेल्फ स्व-अहं भी और परमात्मा या परमतत्त्वम् या खुदा-गॉड-भगवान भी कहते हैं। 

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