भगवान श्रीविष्णु जी की वाणी
(गरुण पुराण के अध्याय १६ से)
भगवान् श्रीविष्णु जी भी ‘परमतत्त्वम् रूप
आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्’ को ही परमात्मा का
यथार्थ रूप बतलाते हैं।
सत्संगश्च विवेकश्च निर्मलं नयनद्ववयम्
यस्त नास्ति नरः सोsन्ध: कथं नस्यादमार्गगः।।
(गरुण पुराण १६/५७)
संसार
में सत्संग और ज्ञान ये दो ही निर्मल नेत्र हैं। जिस पुरुष के पास ये दोनों निर्मल
नेत्र है नहीं, वह पुरुष अंधा ही है। फिर क्यों न वह कुमार्गगामी होगा।
तस्मादित्यादिकं कर्म लोकरंजन कारकम्।
मोक्षस्य कारणं साक्षात् तत्त्वज्ञानं खगेश्वर।।
(गरुण पुराण १६/७०)
हे
पक्षिराज गरुण ! सम्पूर्ण कर्म (जप, तप, व्रत, नियम, तीर्थ, स्नान, दान, उपवास, त्याग आदि) तो
लोक को प्रसन्न करने वाले हैं, मोक्ष का कारण तो साक्षात्
तत्त्वज्ञान ही है।
षड़ दर्शन महाकूपे पतिता: पशव: खग।
परमार्थ न जानन्ति पशुपाश नियंत्रिता:।।
(गरुण पुराण १६/७१)
हे
गरुण ! छः दर्शन रूपी बड़े भारी कुआँ में गिरे हुये पशु पुरुष परमार्थ तत्त्व को
नहीं जान सकते, क्योंकि वे पशु पाशों में बंधे हुये हैं।
वेद शास्त्रार्णवे घोरे उह्यांमाना इतस्ततः।
षडूर्मिनिग्रह ग्रस्तास्तिष्ठन्ति हि कुतार्किका:।।
(गरुण पुराण १६/७२)
वेद, शास्त्र
रूप बड़े भारी अथाह समुद्र में पड़े हुये ग्रंथांतरों के पढ़ने से इधर-उधर भटकने वाले
तथा वुभुक्षा, पिपासा, शोक, मोह, जन्म और मृत्यु इन छः उर्मियों से ग्रसे हुये
कुतर्क के कारण केवल कुतर्क ही करते रहते हैं।
वेदागम पुराणज्ञ: परमार्थ न वेत्ति यः।
विडंबकस्य तस्यैव तत्सर्वं काकभाषितम्।।
(गरुण पुराण १६/ ७३)
वेद, पुराणों
को जानता हुआ भी जो पुरुष परमार्थ तत्त्व को नहीं जानता, ऐसे
उस विडम्बक का पढ़ना और बोलना सब कुछ कौवा की तरह केवल टाँय-टाँय ही है।
इदं ज्ञानमिदं ज्ञेयमिति चिन्ता समाकुलाः।
पठन्त्यहर्निशं शास्त्र परमतत्त्वम् पराङ्मुखाः।।
(गरुण पुराण १६/७४)
यह
ज्ञान है, यह ज्ञेय (जानने योग्य) हैं, इस चिन्ता में व्याकुल
कुछ लोग रात-दिन शास्त्र के पढ़ने में लगे रहते हैं, परन्तु
फिर भी परमतत्त्वम् को नहीं जान पाते।
वाक्यच्छन्दो निबन्धेन काव्यालंकारशोभित:।
चिंतया दु:खिता मढ़ास्तिष्ठन्ति व्याकुलेन्द्रिया:।।
(गरुणपुराण १६/७५)
कुछ
एक मनुष्य वाक्य और छंद के निबंध से, काव्य और अलंकार से सुशोभित हुये
कविपने के अभिमान में ‘यह पद ठीक नहीं हैं, यहाँ यह छंदोभंग दोष हो जाएगा’ आदि विचार में ही
व्याकुल रहते हैं (किन्तु ‘आत्मतत्त्वम्’ नहीं जानते)।
अन्यथा परमं तत्त्वं जनाः क्लिश्यन्तिचान्यथा।
अन्यथा शास्त्र सद्भावो व्याख्यां कुर्वन्तिचान्यथा।।
(गरुण पुराण १६/७६)
परमतत्त्वम्
तो अन्यथा (और ही प्रकार से) है। उसके सत्य रूप को न जानकर उसके विषय में अन्यथा
कुतर्क कर करके क्लेश पाते रहते हैं। उसी प्रकार शास्त्र का सद्दभाव तो दूसरा ही
है किन्तु उस की व्याख्या लोग दूसरे प्रकार से करते रहते हैं।
कथयन्त्युन्मनी भावं स्वयं नानुभवन्ति च।
अहंकाररताः केचिदुपदेशादिवर्जिता:।।
(गरुण पुराण १६/७७)
गुरु
आदि के उपदेश रहित अहंकारी पुरुष स्वयं तो अनुभव करने की सामर्थ्य नहीं रखते और
दूसरों से उपदेश लेने में उन्मनी भाव कहते हैं। अर्थात् दूसरों से उपदेश लेने में
लज्जा करते हैं।
पठन्ति वेद शास्त्राणि बोधयन्ती परस्परम्।
न जानन्ति परमतत्त्वम् दर्वीपाकरसं यथा।।
(गरुण पुराण १६/७८)
वे
वेद और शास्त्रों को पढ़ते रहते हैं तथा आपस में समझते-समझाते भी रहते हैं, किन्तु
इतने पर भी वे -परमतत्त्वम् को नहीं जान पाते हैं जैसे करछुलि (चमचा) सब्जी-दाल में
रहती हुई भी उसके स्वाद को नहीं जान सकती है।
शिरो वहति पुष्पाणि गन्ध जानाति नासिका।
पठन्ति वेद शास्त्राणि दुर्लभो भाव बोधकः।।
(गरुण पुराण १६/७९)
जिस
प्रकार सिर तो पुष्पों को धारण करता है, परन्तु उसके सुगन्थ को नाक पहचानती
है, उस तरह वेद-शास्त्रों को तो सब पढ़ते है, परन्तु उनके भाव को जानने वाला कोई विरला ही होता है।
तत्त्वमात्मस्थमज्ञात्वा मूढ़: शास्त्रेषु मुह्यति।
गोपः कुक्षिगते छागे कूपे पश्यति दुर्मति:।।
(गरुण पुराण १६/८०)
मूर्ख
मनुष्य आत्मतत्त्वम् को न जानकर शास्त्रों के वाक्यों में मोहित होता रहता है जिस
प्रकार कि बगल में लिया हुये बकरे को बगल में लिया हुआ न जानकर भूल से मूर्ख
ग्वारिया कुआँ में खोजता रहता है।
संसार मोह नाशाय शब्द बोधो न हि क्षम:।
न निवर्तेत तिमिरं कदाचित् दीप वार्तया।।
(गरुण पुराण १६/८१)
संसार
के मोह के नाश के लिए शब्दों का अर्थ ज्ञात हो जाना समर्थ नहीं है जैसे बिना
दीपक-दीपक उच्चारण करने से अन्धकार दूर नहीं हो सकता है।
प्रज्ञाहीनस्य पठनं यथानधस्य दर्पणम्।
अतः प्रज्ञावतां शास्त्र तत्त्वज्ञानस्य लक्षणम्।।
(गरुण पुराण १६/८२)
ज्ञान
हीन पुरुष का पढ़ना उसी प्रकार से है जिस प्रकार कि अंधों का दर्पण देखना है। इस
प्रकार ज्ञान से युक्त: सद्ग्रन्थ को तत्त्वज्ञान का लक्षण जानना चाहिए।
न वेदाध्ययनान्मुक्तिर्न शास्त्र पठनादपि।
ज्ञानादेवहि कैवल्यं नान्यथा विनतात्मज।।
(गरुण पुराण १६/८७)
मुक्ति
न तो वेदों के अध्ययन से होती है और न तो शास्त्रों के पढ़ने से ही। मुक्ति तो हे
गरुण केवल तत्त्वज्ञान से ही प्राप्त होती है।
नाश्रमः कारणं मुक्तेर्दर्शनानि न कारणम्।
तथैव सर्वकर्माणि ज्ञानमेवहि कारणम्।।
(गरुण पुराण १६/८८)
मुक्ति
का कारण न तो आश्रम है, न दर्शन शास्त्र ही है और न तो सम्पूर्ण कर्म ही है। मुक्ति का कारण तो
केवल एक मात्र तत्त्वज्ञान ही है।
मुक्तिदा गुरुवागेका विद्या सर्वाविडम्बिका।
काष्ठ भार सहस्त्रेषु ह्येकं संजीवनं परम्।।
(गरुण पुराण १६/८९)
केवल
गुरु की वाणी ही मुक्ति देने वाली है। विद्या तो सब विडंबना मात्र है (फजीती है), जैसे
हजारों काष्ठों में एक संजीवनी काष्ठ ही सर्वोतम है।
अद्वैत हि शिवं प्रोक्तं क्रियायास विवर्जितम्।
गुरुवक्त्रेण लभ्येत नाधीतागम कोटिभि:।।
(गरुण पुराण १६/९०)
परमब्रम्ह
कल्याण रूप अद्वैत् है। वह कर्म काण्ड, योग-साधना,
मुद्राओं आदि क्रियायों के परिश्रम से नहीं प्राप्त होता है और ण करोड़ो शास्त्रों
के पढ़ने से ही मिलता है, केवल गुरु के सदुपदेश से ही मिलता
है।
तत्कर्म यत्र बंधाय सा विद्या या विमुक्तदा।
आयासाया परं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्।।
(गरुण पुराण १६/९४)
उत्तम
कर्म वही है जो संसार के बन्धन में न डाले और वही उत्तम विद्या है जो मुक्ति देने वाला
है, और इससे भिन्न कर्म तो मात्र परिश्रम रूप है तथा दूसरी जो विद्या है, कारीगरी की निपुणता मात्र है।
यावत्कर्माणि दीयन्ते यावत्संसार वासना।
यावदिन्द्रिय चापल्यं तावत्तत्त्वकथाकुतः।।
(गरुण पुराण १६/९५)
जब
तक कर्मो का उदय होता रहता है, जब तक संसार में वासना बनी रहती है और जब तक इन्द्रियों
में चंचलता बनी रहती है, तब तक ‘तत्त्व’ की कथा कहाँ? अर्थात् ऐसे में ‘तत्त्व’ की कथा नहीं हो सकती है?
यावद्देहाभिमानश्च ममता यावदेव हि।
यावत्प्रयत्न वेगोsस्ति यावत्संकल्प कल्पना।।
(गरुण पुराण १६/९६)
जब
तक देहाभिमान है, जब तक ममता है, जब तक प्रयत्नों का वेग रहता है तथा
जब तक संकल्पों की कल्पना रहती है।
यावन्नो मानसस्थैर्यं न यावच्छास्नचिंतनम्।
यावन्न गुरुकारुण्यं तावत्तत्त्वकथा कुतः।
(गरुण पुराण १६/९७)
और
जब तक मान स्थिर नहीं होता तथा जब तक शास्त्र चिंतन नहीं होता एवं जब तक गुरु की कृपा
नहीं होती, जब तक ‘तत्त्व’ की कथा कैसे हो
सकती है?
तावत्तपो व्रतं तीर्थं जपहोमार्चनादिकम्।
वेद शास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
(गरुण पुराण १६/९८)
तब
तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि है तथा तब तक ही वेद, शास्त्र और
आगमों की कथा है, जब तक कि तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता। तत्त्वज्ञान
प्राप्त होने पर ये सब कुछ भी नहीं हैं।
तस्मात्सर्व प्रयत्नेन सर्वावस्थासु सर्वदा।
तत्त्वनिष्ठो भवेत्ताक्ष्र्य यदीच्छेन्मोक्षमात्मनः ॥
(गरुण पुराण १६/९९)
इसलिए
हे गरुण ! जो अपना मोक्ष चाहे तो उस पुरुष को सब प्रयत्नों से सर्वदा और सब अवस्थाओं
में ही ‘तत्त्व’ में ही निष्ठा करनी चाहिए।
तस्माज्ज्ञानेनात्मतत्त्वम् विज्ञेयं श्रीगुरोर्मुखात् ।
सुखेनमुच्यते जन्तुर्घोर संसार बंधनात् ॥
(गरुण पुराण १६/१०१)
इस
कारण ज्ञान करके श्रीगुरुजी के मुख से ‘आत्मतत्त्वम्’
को जान लेना चाहिए। इस ‘आत्मतत्त्वम्’ के
जान लेने से मनुष्य संसार के घोर बन्धन से बड़े ही सुख से छूट जाता है।
उपर्युक्त श्लोकों के माध्यम
से आप ऋगवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद के मंत्रों द्वारा तथा गरुण पुराण के माध्यम से भगवान
श्रीविष्णुजी महाराज के श्रीमुख की वाणी द्वारा भी ‘परमतत्त्वम्
रूप आत्मतत्त्वम् रूपी परमात्मा’ जो एकमात्र शब्दरूप या तत्त्वरूप
ही है, को ही जानने, देखने एवं प्राप्त
करने की बात ही उपदेशित की गयी है। न ॐ को, न सोsहँ-हँसो-दिव्य ज्योति रूप शिव को ही और न तो स्वाध्याय को और न तो योग-साधना-अध्यात्म
को ही जानने को कहे हैं। केवल एकमात्र परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् और तत्त्वज्ञान
मात्र को ही जानने-देखने को सभी ही कहे हैं।