तत्त्ववादी धारणा
(The Concept of SUPREME-in-ALL--------TATTVAVAADI DHAARNA)
अब तक तत्त्ववादी धारणा के
अन्तर्गत मुख्यतः तीन सत्पुरुषों के ही नाम आते हैं---प्रथम श्री विष्णु जी महाराज, द्वितीय श्री रामचन्द्र जी महाराज और तृतीय श्री कृष्ण जी महाराज।
वर्तमान में उसी ‘तत्त्व’ का
प्रचार-प्रसार ‘सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्’ वाले सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस भी कर रहे हैं।
तत्त्ववादी धारणा के अन्तर्गत परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् या गॉड या अलम्
शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा को ही बिना किसी पूजा-पाठ, जप-तप, व्रत-नेम, होम-यज्ञ, तीर्थ-स्नान, योग-साधना तथा मुद्राओं आदि के ही, एकमात्र भगवत्कृपा प्रदत्त तत्त्वज्ञान से ही जाना,
साक्षात् देखा तथा बात-चीत करते हुये पहचान किया जाता है। वेद-उपनिषद्-रामायण-गीता
वाले विराटपुरुष का भी, साथ ही साथ श्रीराम और श्रीकृष्ण जी
का भी मूर्ति-फोटो नहीं अपितु वास्तविक (तात्त्विक) रूप में साक्षात् दर्शन व
बात-चीत भी प्राप्त होता है।
परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान्
शरीर नहीं अपितु एक सर्वोच्च शक्ति-सत्ता है। अद्वितीय परमतत्त्वम् रूप
आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् है। परम आकाश रूप परमधाम-बिहिश्त-पैराडाइज का
वासी है। परमतत्त्वम् रूप परमात्मा किसी भी भूत प्राणी में यहाँ तक कि योगी-यति, ऋषि-महर्षि, देवी-देवता,
नारद-ब्रम्हा एवं शंकर जी के अन्दर भी नहीं रहता है। इतना ही नहीं, वह भू-मण्डल तथा ब्रम्हा आदि के देव लोक में भी नहीं रहता है। हालाँकि
नारद, ब्रम्हा, शंकरजी, समस्त ऋषि-महर्षि गण, ईसा,
मोहम्मद, आद्यशंकराचार्य, नारद, रामानंद, तुलसीदास, कबीर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, हंस जी, सन्त निरंकारी बाबा गुरु बचन सिंह, राधा स्वामी एवं आचार्य चतुर्भुज सहाय आदि के साथ ही वर्तमान सन्त
महात्मा श्री बालयोगेश्वर जी, सतपाल,
महर्षि मेंही (मृत), महर्षि महेश योगी,
जय गुरुदेव उर्फ सन्त तुलसी दास, साई बाबा, रजनीश (मृत) एवं आनन्द मूर्ति जी (मृत) (पतनोन्मुखी सोsहँ वाला योग साधना कराने वाले समस्त साधक एवं महात्मा गण) आदि भूल, भ्रम एवं नाजानकारीवश आत्मा, पतनोन्मुखी सोsहँ तथा उर्ध्वमुखी हँसो-ज्योति को ही परमतत्त्वम् रूप परमात्मा और समस्त
भूत प्राणियों के अन्दर (ह्रदय गुफा में) तथा कण-कण में ही परमात्मा का वासस्थान
घोषित कर दिये हैं जो बिल्कुल झूठ और गलत है।
चूँकि लगभग समस्त
सद्ग्रन्थ ही इन्हीं लोगों के द्वारा लिखे गए हैं,
परमतत्त्वम् रूप परमात्मा समाप्त होने या करने वाली कोई बात या वस्तु तो है नहीं, कि समाप्त हो जाय या इन पूर्वोक्त समस्त जड़वादी और आत्मिक एवं साधनात्मक
धारणावालों द्वारा समाप्त कर दिया जाय। इन लोगों के द्वारा जब-जब सामूहिक रूप से
भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा के मूल अस्तित्त्व को समाप्त कर उसके स्थान पर ॐ व अहं
ब्रम्हास्मि से सम्बंधित जड़वादी धारणा तथा सोsहँ-हँसो और
शिव-ज्योति से सम्बंधित चेतनवादी (आत्मिक एवं साधनात्मक ) धारणा को ही तत्त्ववादी
धारणा घोषित कर दिया जाता है; तब-तब ही परम आकाश रूप परम धाम
का वासी परमतत्त्वम् रूप परमब्रम्ह परमात्मा का, इन लोगों
द्वारा प्रायः लुप्त किये-कराए हुये मूल अस्तित्त्व (परमतत्त्वम्) कि पुनर्स्थापना
तथा मूल अस्तित्त्व (मूल धर्म) को मिटाने वालों को ही मिटाने हेतु एवं मूल धर्म
वाले (तत्त्ववादी) लोगों की रक्षा व्यवस्था करने के लिए ही किसी शरीर विशेष को
ग्रहण (धारण) कर अवतरण होता है।
जब तक परमतत्त्वम् रूपी
परमात्मा शरीर विशेष के साथ रहते हुये इस भू-मण्डल पर कार्य करता रहता है तब तक तो
अधिकतर जड़वादी उससे टकराते और संघर्ष करते हुये शैतानियत एवं दानवी परम्परा का
कायम रखते हैं तथा चेतनवादी (साधनात्मक धारणा वाले) इस संघर्ष में मौन निरीक्षक
रूप धारण कर ऋषि-महर्षियों की परम्परा को कायम रखते हैं और अंत में जब परमतत्त्वम्
वाली शरीर अपने लक्ष्यों की पूर्ति में सफल हो जाती है, तब तत्कालीन नारद, बाल्मीकि तथा व्यास जैसे सिद्ध
चेतनवादीगण उनकी कृतियों को लीला के रूप में एवं उपदेशों (परमतत्त्वम्) जो सत्य
सनातन धर्म है को ही धर्म घोषित कर देते हैं तथा उनको लिखित रूप देकर वेद-उपनिषद्, रामायण, गीता-पुराण, बाइबिल व
क़ुरान आदि-आदि सद्ग्रन्थों की रचना कर देते हैं।
तत्कालीन समयों से तो कोई
विद्या के अभिमान में, तो कोई धन के, कोई पद के अभिमान में तो कोई जप-तप होमार्चनादि में, कोई योग-साधना के अभिमान में तो कोई संख्या (अनुयायियों और
आश्रमों-केन्द्रों) के, कोई सिद्धि और चमत्कारों के अभिमान
में तो कोई मान-प्रतिष्ठा-यश के अभिमान में फूले (अहंकारी बने) हुये रहने के कारण
अवतारी पुरुषोत्तम रूप सद्गुरु से सद्ज्ञान (परमतत्त्वम् का ज्ञान) या परम सत्य का
ज्ञान प्राप्त करते नहीं, परंतु उनके परम प्रिय
सेवकों-शंकरजी-नारद, लक्ष्मण-हनुमान,
उद्धव-गोपियों आदि से सुन-सुन कर, जबकि परमतत्त्वम्
(आत्मतत्त्वम्) रूपी परमात्मा की रहस्यमय यथार्थ जानकारी ये लोग भी नहीं दे सकते, क्योंकि वह जानकारी तो एक मात्र वही (भगवान् ही) दे सकते हैं, फिर भी मात्र ऊपरी जानकारी कि परमतत्त्वम् रूपी परमात्मा कभी भी और किसी
भी प्राणी के अन्दर (ह्रदय-गुफा में) तथा पूरे भू-मण्डल पर भी, कहीं भी नहीं रहता है। वह तो मात्र परमआकाश रूपी परमधाम में ही रहता है।
और जब-जब भू-मण्डल पर अत्याचार और दुर्व्यवस्था चारों तरफ ही बढ़ जाती है, मानवीय तथा दैवी शक्तियों के नियंत्रण के बाहर हो जाती हैं तब-तब भक्तों
के करूण-क्रंदन (पुकार) को सुनकर उनका भू-मण्डल पर अवतार होता है। परमतत्त्वम्
रूपी परमात्मा तथा उसके वास-स्थान परमधाम का भी सद्ग्रन्थों में संकेत कर देते
हैं। इन्हें ही पढ़-पढ़ कर लोग पण्डित, शास्त्री, आचार्य, विद्वान, वेदांती तथा
रामायणी आदि बनते हैं।
परमतत्त्वम् रूपी परमात्मा
स्वयं तो नाम-रूप से रहित है किन्तु सृष्टि के सम्पूर्ण नाम-रूप उसी से उत्पन्न
तथा उसी में तत्त्वज्ञान द्वारा विलय कर जाते हैं; अर्थात्
सृष्टि का सम्पूर्ण मैं-मैं तू-तू तथा ॐ-अहं ब्रम्हास्मि और सोsहँ भी उसी से उत्पन्न तथा तत्त्वज्ञान द्वारा शरीर से अलग अहम्, अहम् से अलग हँसो होता दिखायी देता हुआ उसी परमतत्त्वम् रूप
आत्मतत्त्वम्-गॉड-अलम् में विलय होते हुये स्पष्टतः जाना एवं साक्षात् देखा जाता
है, और उसी के द्वारा पुरुषोत्तम अवतारी रूप सद्गुरु एवं
सत्य ज्ञान की यथार्थ जानकारी व पहचान भी हो जाती है। ‘तत्त्व
के द्वारा तत्त्व को ही जानना, देखना तथा
तत्त्वमय-तत्त्वनिष्ठ होता हुआ अपने आप को देखना-पहचान करना ही तत्त्वज्ञान कहलाता
है।‘’
मया
ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।‘’
मत्स्थानि सर्वभूतानि न
चाहं तेष्ववस्थित:।।
(श्री मद् भगवद्गीता ९/४)
‘हे अर्जुन! मुझ
सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह सम्पूर्ण जगत् अमूर्त्त से मूर्त्त सदृश परिपूर्ण है
और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्प के आधार पर स्थित हैं फिर भी वास्तव में मैं उनमें
स्थित नहीं हूँ।‘
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य
में योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो
ममात्मा भूतभावन:।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ९/५)
‘और वे सब भूत मेरे
में स्थित नहीं है किन्तु मेरी योगमाया और प्रभाव को देख कि सब भूतों का धारण-पोषण
करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला मेरी आत्मा वास्तव में सब भूतों में
स्थित नहीं है।‘
ऋग्वेदीय, यजुर्वेदीय, अथर्ववेदीय मन्त्र देखें
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्
अस्मिन देवां अधि विश्वेनिषेदुः।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति
य इत् तद् विदुस्ते इमे समासते।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ४/८)
(ऋग्वेद म॰१ सू॰१६४ मन्त्र ३९ तथा अथर्ववेद ९/१५/१८)
व्याख्या---परमब्रम्ह-परमेश्वर के जिस अविनाशी परम आकाश रूप परमधाम में समस्त
देवगण अर्थात् उन परमात्मा के पार्षदगण उन परमेश्वर की सेवा करते हुये निवास करते
हैं, वहीं समस्त वेद भी पार्षद के रूप में मूर्तिमान होकर भगवान् की सेवा
करते हैं। जो मनुष्य उस परमधाम में रहने वाले परमब्रम्ह पुरुषोत्तम को नहीं जानता
और इस रहस्य को भी नहीं जानता कि समस्त वेद उन परमात्मा की सेवा करने वाले उन्हीं
के अंगभूत पार्षद हैं वह वेदों के द्वारा क्या प्रयोजन सिद्ध करेगा? अर्थात् कुछ सिद्ध
नहीं करेगा। परन्तु जो मनुष्य उस परमात्मा को ‘तत्त्वत’: जान लेते है, वे तो उस परमधाम में ही सम्यक् प्रकार से (भली-भाँति) प्रविष्ट होकर
सदा के लिए ही स्थित हो रहते हैं।
न तत्र सूर्यों भाति न चन्द्रकारकं नेमा विद्युतो
भान्ति कुतोsयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्यभासा सर्वमिदं
विभाति ॥
व्याख्या—परमब्रम्ह
परमेश्वर के परमधाम में सूर्य नहीं प्रकाशित होता। चन्द्रमा, तारा
बिजली भी वहाँ नहीं चमकते फिर इस लौकिक अग्नि की तो बात ही क्या, क्योंकि प्राकृत जगत में जो कुछ भी प्रकाशशील है,
सब उस परमब्रम्ह परमेश्वर की प्रकाश शक्ति के अंश को पाकर ही प्रकाशित है।
न
तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा
न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम् ॥
(श्रीमद्
भगवद् गीता १५/६)
उस
परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित
कर सकता है तथा जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते हैं वही
मेरा परमधाम है।
अव्यक्तोsक्षर
इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।
यं
प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम् ॥
(श्रीमद्
भगवद् गीता ८/२१)
जो
वह अव्यक्त अक्षर ऐसे कहा गया है, उस ही अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परम गति कहते
हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते
हैं, वह मेरा परमधाम है।
एक
अनीह अरूप अनामा ।
आज
सच्चिदानन्द परधामा ॥
(श्रीराम
चरित मानस, बालकाण्ड)
परमात्मा
एक है, अनिच्छित है, नाम-रूप से रहित है, अजन्मा है, सच्चिदानन्दघन है और परमधाम का वासी है।
जिस
प्रकार जड़वादी धारणा वाले विद्वान, पण्डित,
शास्त्री एवं आचार्यगण जब धर्मग्रन्थों का उपदेश देते हैं तो जितने मंत्रों, श्लोकों एवं दोहा चौपाइयों आदि के अर्थ भावों की जानकारी नहीं रहती, तथा जितने मंत्रों आदि में इन्हे जढ़, मूढ़ तथा अन्धा
आदि बताते हुये उपदेश देने से मना किया गया है, उन-उन
प्रकरणों को ये लोग समाज के समक्ष बिल्कुल ही नहीं रखते हैं और जितनी बातें
(उद्धरण) इनके अनुकूल (दान-दक्षिणा, पूजा-पाठ, होम-जाप आदि) पड़ती हैं उनको तो ये बार-बार काफी समझा-बुझाकर बतलाते हैं, खूब मथते हैं जिससे अविचारी एवं अज्ञानी व्यक्ति भावना एवं परम्परागत
मान्यताओं में बहकर उन्ही जड़वादी मूर्तियों, सद्ग्रन्थों तथा
मन्दिरों-मस्जिदों गिरजाघरों गुरुद्वारों मात्र में ही खुदा-गॉड-भगवान या
सर्वोच्च-शक्ति-सत्ता की कल्पना आरोपित कर, उन्ही को अपना
आधार मानकर उन्ही में फँसकर न तो योग-साधना आदि को ही ग्रहण करते हैं और न ज्ञान
को ही। जब कि सभी सद्ग्रन्थ एवं मूर्तियाँ उन्ही ज्ञानियों के उपदेशों और लीला
चरित्रों एवं सिद्ध योगियों-साधकों के ही शोध (खोज) तथा आकृतियों (शरीरों) एवं
जीवन चरित्र के हैं।
ठीक
उसी प्रकार योग-साधनाओं के सामान्य अभ्यासी साधकों से लेकर शंकर जी, ब्रम्हा
जी, सनक, सनन्दन,
सनातन, सनत्कुमार, पुलह, पुलत्स्य, क्रतु, वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, लोमश, भारद्वाज, नारद जी, ऋषभ देव, महात्मा
ऋभु, अंगी, अंगीरस, श्वेताश्वतरजी, महर्षि व्यास,
शौनक, अथर्वा, महर्षि जाबालि, पातञ्जलि, आद्यशंकराचार्य,
मूसा, ईशु, मुहम्मद, नानक, कबीर, तुलसीदास, श्रीरामानन्द जी, श्री राधास्वामी, तुलसी साहब, दादू, पलटू, रविदास, कीनाराम, दरिया साहब, सहजोबाई, श्रीरामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, श्रीब्रम्हानन्द जी, श्री देवी साहब, श्री अरविन्द, श्री चतुर्भुज सहाय, निरंकारी बाबा गुरुवचनसिंह, श्री हंस जी, सतपाल, श्रीबालयोगेश्वर जी,
महर्षि मेंही जी, श्री आनन्दमूर्ति जी,
माता आनन्दमयी जी, महर्षि महेश योगी,
श्री जनार्दन स्वामी, श्री साईं बाबा,
श्री रजनीश, श्री शिवानन्द जी,
सन्म्योंगमून आदि समस्त साधना कराने वाले गुरुओं ने जीव को ही आत्मा और आत्मा के
नाम-रूप-स्थान-गुण आदि को ही परमात्मा का नाम-रूप-स्थान-गुण आदि घोषित (मौखिक एवं
लिखित रूप में भी) कर दिया है। पतनोन्मुखी सोsहं, भ्रामक शिवोsहं, ॐ तथा
उर्ध्वमुखी हँसो अजपा-जाप-ध्यान आदि प्रक्रियाओं-साधनाओं को ही नीचे स्वाध्याय भी
और ऊपर तत्त्वज्ञान भी घोषित कर मानव शरीर एवं प्रत्येक जीव क्या, कण-कण तक में भी परमात्मा का वास स्थान घोषित कर दिया है। जिसका कुपरिणाम
यह होता गया कि इस भू-मण्डल पर परमधाम से अवतरित होने वाले परमतत्त्वम् रूप
आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा को ही पहचानना जनमानस के लिए दुःसाध्य हो जाता है।
ये
उपर्युक्त समस्त योगी, साधक महात्मा एवं ऋषि-महर्षिगण ही सद्ग्रंथों से अपने अनुकूल समस्त
उदाहरणों को प्रमाण रूप में रखते वा दिखाते हैं। परन्तु
प्रतिकूल और अपने से श्रेष्ठतर (तत्त्वज्ञान सम्बन्धी) उद्धरणों को नाजानकारी वश
रख भी नहीं पाते अथवा अपने प्रतिष्ठा (मर्यादा) समाप्ति के भय से छिपा देते हैं।
ये लोग जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा और स्वाध्याय को ही योग-अध्यात्म
की साधना और योग-साधना-अध्यात्म से सम्बंधित प्रक्रियाओं को ही तत्त्वज्ञान घोषित
करते हुये यह भी घोषित कर देते हैं कि समस्त शरीरों तथा वस्तुओं में स्थित चेतन
आत्मा से परे श्रेष्ठ अन्य कुछ है ही नहीं। इसलिए आत्मा को ही जानना, देखना, सुनना तथा प्राप्त करना चाहिये क्योंकि एकमात्र यह आत्मा ही जानने योग्य
(ज्ञेय) है। यह आत्मा ही चेतन, नूर,
डिवाइन-लाइट, चाँदना, सहज प्रकाश, परम-प्रकाश, भर्गो-ज्योति है। साधनाओं से ही आत्मा
की जानकारी, दर्शन एवं प्राप्ति हो सकती है अर्थात् आत्मा की
प्राप्ति से सम्बंधित साधना ही परमात्मा की प्राप्ति से सम्बंधित तत्त्वज्ञान है
और साधना से प्राप्त होने वाली आत्मा ही तत्त्वज्ञान से प्राप्त होने वाला
परमात्मा है। इसलिए आत्मा की जानकारी, दर्शन मात्र से ही
ब्रम्हपद प्राप्ति ब्रम्हमय वृत्ति अमरता, पाप मुक्ति भव
मुक्ति मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
साधक
बन्धुओं ! ऐसी बातें है नहीं। ये उपरोक्त बातें सरासर पूर्णतया भूल, भ्रम एवं
नासमझदारी वश कही एवं लिखी गई हैं। ये लोग स्वयं भ्रम में रहे हैं एवं अनुयायियों
को भी भ्रम में डालते रहे हैं तथा वर्तमान समय में भी भ्रम में डालकर, अपनी मान-प्रतिष्ठा एवं यश को प्रचारित करते हुये काफी ज़ोर-शोर से अपने-अपने
समाज (संस्थाओं) को कायम कर करके स्वयं को अवतारी बनने का स्वप्न देख रहे हैं तथा
अपने को अवतार घोषित भी कर-करा दे रहे हैं जो सरासर झूठ तो है ही, बिल्कुल ही गलत भी है। भगवद् जिज्ञासु जनमानस को अपने मिथ्यामहत्वाकांक्षा
की पूर्ति हेतु भरमा-भटका कर उनके धन-धरम दोनों का ही दोहन-शोषण किया जा रहा है।
भोली भाली अज्ञानी धर्म-पिपासु जनता शोषित होने के साथ ही धर्मच्युत भी होती जा
रही है।
आदिकाल
से वर्तमान काल तक के समस्त ऋषि-महर्षि, योगी,
महात्मा सहित श्री आद्यशंकराचार्य, ईशा-मसीह, मुहम्मद साहब, नानक, कबीर, तुलसीदास जी, आदि के साथ ही रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द जी, श्रीहंस जी, श्रीबालयोगेश्वर जी तथा सतपाल आदि समस्त साधक गुरुओं तथा उपदेशकों द्वारा
भगवद् प्रेमी भक्तों को भ्रामक प्रचार रूप धोखा : -
इन
लोगों द्वारा मौखिक एवं लिखित रूप में भगवद् प्रेमी जिज्ञासुओं को बुलाया जाता है
परमात्मा को जनाने, दिखाने के लिए तथा तत्त्वज्ञान प्रदान करने के लिए,
परन्तु भगवद् प्रेमी-जिज्ञासु एवं श्रद्धालु भक्तगण जब जानने, देखने एवं प्राप्त करने हेतु इनके सम्पर्क में आते हैं तब आत्मा (सः एवं
ज्योति) को ही, वह भी सः ज्योति भी नहीं, हँसो ज्योति मात्र ही और पुराण काल के पश्चात् से वर्तमान तक के प्रायः
सभी ही अब पतनोन्मुखी सोsहँ (श्वाँस-निःश्वाँस) वाला अजपा जप
वाले को ही जना-दिखा कर तथा इसकी साधना को ही बता एवं करा कर सद्ग्रंथों से तुरन्त
प्रमाणित करते हुये आत्मा को ही परमात्मा तथा साधना को ही तत्त्वज्ञान कहकर भ्रमित
करते हुये धोखा दिया गया एवं दिया जा रहा है। जबकि—
सच्चाई
यह है कि जीव ही आत्मा नहीं और आत्मा ही परमात्मा नहीं; जीव ही
ब्रम्ह नहीं और ब्रम्ह ही परमब्रम्ह नहीं; जीव ही ईश्वर नहीं
और ईश्वर ही परमेश्वर नहीं; अहम् ही सोsहँ-हँसो नहीं और सोsहँ-हँसो ही परमहंस नहीं; रूह ही नूर नहीं और नूर ही अल्लाहतआला नहीं; सेल्फ
ही सोल नहीं और सोल ही गॉड नहीं; हृदय गुफा ही परमधाम नहीं; अध्यापक ही गुरु नहीं और गुरु ही सद्गुरु नहीं तथा सोsहँ की अजपा जाप क्रिया एवं ध्यान आदि साधना ही कदापि तत्त्वज्ञान नहीं है।
जीव
कुछ और है तो आत्मा कुछ और है। आत्मा से श्रेष्ठ (बलवती) महामाया होती है जो आत्मा
को ही अपने वश में रखकर सृष्टि का संचालन स्वयं तथा अपने प्रतिनिधियों (ब्रम्हा, विष्णु, महेश) द्वारा अपने स्वामी परमात्मा के निर्देशन एवं अध्यक्षता में करती
रहती है। अतः जब तक इस महामाया के स्वामी परमात्मा परमब्रम्ह (सर्वोच्च
शक्ति-सत्ता-परमहंस अल्लाहतआला) को तत्त्वज्ञान द्वारा सद्गुरु से गरुड़, हनुमान, अर्जुन-उद्धव-गोपियों आदि की तरह ही जान, देख, बात चीत करते हुये पहचान नहीं लेंगे, तब तक आत्मा, ब्रम्ह, ईश्वर, शक्ति, हँस, नूर या सोल या
स्पिरिट ज्योतिर्मय शिव आदि को योग-साधना आदि से जान एवं देखकर भी कदापि महामाया
तथा इससे उत्पन्न सृष्टि, मायाबद्धता या भवसागर से पार नहीं
हो सकते; पापं मुक्ति, अमरता नहीं मिल
सकती; मै-मै, तू-तू का ‘तत्त्व’ में विलय रूप एकतत्वबोध नहीं मिल सकता; परमपद, परमधाम, परम-शान्ति
एवं परमानन्द की प्राप्ति तो कदापि नहीं होगी।
यथार्थ
बात तो यह है कि इन उपरोक्त समस्त ऋषि-महर्षि, देवी-देवता तथा योगी-महात्माओं और
साधक गुरुजी लोगों को जीव और आत्मा क्या है, कैसे उत्पन्न
होते और किस प्रकार एक दूसरे के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं---यह बिल्कुल ही
नहीं मालूम है। इनके ग्रन्थों को देखने से यही लगता है। इन लोगों को मात्र
योग-साधनाओं एवं मुद्राओं द्वारा इतनी ही जानकारी हो पाती है कि सोsहँ (श्वाँस-नि:श्वाँस) शरीर में किस प्रकार क्रियाशील होते रहते हैं तथा
आत्मा से मिलन किस प्रकार होता है। इसके सिवाय इन लोगों को और कुछ भी जानकारी नहीं
रहती है। यह इन लोगों का विशाल घोर अहंकार (अभिमान) होता है कि जीव को ही आत्मा और
आत्मा को ही परमात्मा तथा स्वाध्याय को ही योग-अध्यात्म और अध्यात्म-योग-साधना को
ही तत्त्वज्ञान कह-कह गुरु के स्थान पर सद्गुरु बन जाते हैं। सन्त महात्मा के
स्थान पर अवतारी बन जाते हैं।
ये
लोग तो आत्मज्ञान को ही तत्त्वज्ञान, ब्रम्ह-ज्ञान को भी तत्त्वज्ञान ही
घोषित कर देते हैं। यह भी इन्हें मालूम नहीं कि ‘ब्रम्हज्ञान+आत्माज्ञान+तत्त्वज्ञान
= तत्त्वज्ञान’ होता है। अलग-अलग आत्मज्ञान एवं ब्रम्हज्ञान
भी कदापि तत्त्वज्ञान नहीं कहला सकता है। यह तीनों अलग-अलग परमतत्त्वम् रूप ‘आत्मतत्त्वम्’ शब्दरूप परमात्मा के अंग मात्र है तथा
तीनों का एकत्त्व रूप ही तत्त्वज्ञान (पूर्णज्ञान) कहलाता है। ब्रम्ह ज्ञान
शास्त्राध्ययन से, आत्मज्ञान साधना से तथा तत्त्वज्ञान
परमतत्त्वम् रूप ‘आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा’ से हो प्राप्त होता है।
शास्त्र
से ‘अयम् आत्मा ब्रम्ह’, ‘अहम् ब्रम्हास्मि’, ‘सोsहमस्मि तथा तत्त्वमसि’, सोsहँ-हँसो ज्योतिर्मय सः –शिव और स्वयं परमात्मा
द्वारा ही तत्त्वज्ञान से परमतत्त्वम् रूप ‘आत्मतत्त्वम्’ शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् की बात-चीत सहित जानकारी और साक्षात् दर्शन
प्राप्त एवं एकत्त्व बोध होता है। सृष्टि के सम्पूर्ण मैं-मैं, तू-तू का बिना किसी साधना के ही साक्षात् एकत्त्व बोध हुये बिना, पापों से एवं भवसागर से कदापि मुक्ति नहीं मिल सकती है; चाहे लाखों-करोड़ों ग्रन्थों को अध्ययन एवं लाखों-करोड़ों वर्षों तक
योग-साधना की साधना करते रहे। इससे परमात्मा, तत्त्वज्ञान, परमशान्ति-परमपद-परमानन्द-मुक्ति एवं परमधाम की प्राप्ति कदापि नहीं होती
है। यदि कोई कहता व लिखता है तो मात्र भ्रम एवं नाजानकारी के अलावा कुछ भी नहीं।
ऐसा
कहना-लिखना मिथ्याज्ञानभिमान मात्र ही हो सकता है, है भी। सच्चा ज्ञान तो
एकमेव एकमात्र केवल ‘तत्त्वज्ञान’ ही
होता है, है भी। मुझको प्राप्त कर जांच-परख कर देख सकते हैं।
भगवद्
प्रेमी पाठक बंधुओं! निम्नलिखित उद्धरणों में आप देखेंगे कि समस्त ऋषि-महर्षि,
योगी-महात्मागण जनाने-दिखाने तथा प्राप्त कराने के लिए जनमानस को बुलाते या कहते
हैं कि परमात्मा को ही तत्त्वज्ञान द्वारा जानना व देखना चाहिए, परन्तु जैसे ही जिज्ञासु भक्त इनके समीप आते हैं,
वैसे ही ये लोग आत्मा (सः और ज्योति) को ही शरीर में ही योग-साधना द्वारा ही
जना-दिखा कर, वह भी सः ज्योति व उर्ध्वमुखी हँसो ज्योति नहीं, विनाश को ले जाने वाली पतनोन्मुखी सोsहँ की
श्वाँस-नि:श्वाँस वाली क्रिया जो सहज ही प्रत्येक जीवित शरीर में हो रही है, को करा-जनाकर कहते हैं कि यह जीव ही आत्मा है और यह आत्मा ही परमात्मा है
तथा साधना ही तत्त्वज्ञान है। इस आत्मा से श्रेष्ठ कुछ है ही नहीं, इसलिए एकमात्र यही जानने योग्य है।
इनके
अनुसार जड़, चेतन, दो ही तत्त्व हैं जिसमें आत्मा (चेतन) ही
परमात्मा है तथा चेतन (आत्मा) को ही ये जना व दिखा भी सकते हैं। जबकि क्रमशः आप
देखेंगे कि आत्मा से भी श्रेष्ठ महामाया तथा महामाया से भी श्रेष्ठ महामाया का
स्वामी (श्रेष्ठ) परमात्मा है जो जड़ चेतन दोनों से परे,
श्रेष्ठ और सामर्थ्यवान (सर्वश्रेष्ठ) होता है।
अतः
आप बंधुओं को आत्मा (सः ज्योति) तथा साधना वालों और ॐ वालों के चक्कर (भ्रम) में न
फँस कर तत्त्वज्ञान द्वारा एकमात्र परमात्मा को ही जान-देख तथा बात-चीत करते हुये
पहचान करना चाहिए क्योंकि परमात्मा चेतन नहीं है बल्कि जड़ और चेतन दोनों का ही
उत्पत्ति-संचालन और नियन्त्रण कर्ता है-----जैसा कि आत्मा वाले प्रकरण के बाद
परमात्मा वाले प्रकरण में देखेंगे।
पार्वती-शंकरजी
का ज्ञान-विषयक प्रश्नोत्तर
(शिव
स्वरोदय से)
देव-देव
महादेव कृपां कृत्वा ममोपरि ।
सर्वसिद्धिकर
ज्ञानं कथयस्व ममप्रभो ॥
(शिव
स्वरोदय २)
पार्वती
जी बोलीं-हे देव-देव महादेव ! आप मेरे प्रति सभी सिद्धियों को प्राप्त कराने वाले
श्रेष्ठ ज्ञान का उपदेश करने की कृपा करिये ।
कथं
ब्रम्हाण्डं उत्पन्नम् कथं वा परिवर्ततं ।
कथं
विलीयते देव वद ब्रम्हाण्डनिर्णयम् ॥
(शिव
स्वरोदय ३)
हे
देव ! यह ब्रम्हाण्ड कैसे उत्पन्न हुआ ? इसका परिवर्तन कैसे होता है ? कैसे इसका विलय होता है ? इस प्रकार ब्रम्हाण्ड का
निर्णय मेरे प्रति कहिए ।
तत्त्वाद्
ब्रम्हाण्डमुत्पन्नं तत्त्वेन परिवर्तते ।
तत्त्वेविलीयते
देवि तत्त्वाद् ब्रह्माण्डनिर्णयः ॥
(शिव
स्वरोदय ४)
शिवजी
ने कहा – हे देवि ! इस ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति ‘तत्त्व’ से हुई है ‘तत्त्व’ से ही इसका
परिवर्तन और विलय होता है। इस प्रकार ब्रम्हाण्ड का निर्णय ‘तत्त्व’ से समझो।
तत्त्वमेव
परं मूलं निश्चितं तत्त्ववादिभिः ।
तत्त्वस्वरूपं
कि देव तत्त्वमेव प्रकाशय ॥
(शिव
स्वरोदय ५)
पार्वती
जी ने कहा – हे देव ! तत्त्ववादियों का निश्चय है कि ब्रम्हाण्ड का मूल ‘तत्त्व’ ही है। उस ‘तत्त्व’ का क्या
रूप है, यह मुझे बतलाइए ।
निरञ्जनों
निराकार एको देवो महेश्वरः ।
तस्मादाकाशमुत्मन्नमाकाशाद्वायुसम्भवः
॥
(शिव
स्वरोदय ६)
शिव
जी बोले – निरंजन, निराकार महेश्वर एक ही देव हैं, उनसे आकाश उत्पन्न
हुआ और आकाश से वायु की उत्पत्ति हुई।
वायोस्तेजस्ततश्चापस्ततः
पृथ्वीसमुदुभवः ।
एतानि
पञ्चतत्त्वानि विस्तीर्णानि च पंचधा ॥
(शिव
स्वरोदय ७)
वायु
से तेज, तेज से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई। इस प्रकार यह पाँचों तत्त्व इस
संसार में विस्तार को प्राप्त होते हैं।
तेभयोब्रम्हाण्डमुत्पन्नं
तैरेव परिवर्तते ।
विलीयते
च तत्रैव तत्रैव नमते पुनः ॥
(शिव
स्वरोदय ८)
इन्ही
से ब्रम्हाण्ड उत्पन्न होता है । इन्ही से पालन होता है और फिर प्रलयकाल आने पर
ब्रम्हाण्ड इन्ही में लीन हो जाता है।
पञ्चतत्त्वये
देहे पञ्चतत्त्वानि सुन्दरि ।
सूक्ष्मरूपेण
वर्त्तन्ते ज्ञयन्ते तत्त्ववादिभिः ॥
(शिव
स्वरोदय ९)
हे
सुन्दरि ! पाँच तत्त्वों से उत्पन्न हुये शरीर में यः पाँचों तत्त्व सूक्ष्म रूप
से विद्यमान रहते हैं। परन्तु उसका ज्ञान तत्त्ववेत्ताओं को ही होता है।
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं
ज्ञानं सुबोध सत्य प्रत्ययम् ।
आश्चर्य
नास्तीके लोकं आधारंत्वास्तिके जने ॥
(शिव
स्वरोदय १२)
यह
ज्ञान सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते हुये भी जानने में सुबोध और सत्य की प्रतीति को
कराने वाला है। नास्तिकों को तो यह आश्चर्य प्रतीत होता है, परन्तु
आस्तिक पुरुषों के लिए आधार स्वरूप है।
नाम
रूपादिकाः सर्वे मिथ्या सर्वेषु विभ्रमः ।
अज्ञान
मोहिता मूढ़ा यावत्तत्त्वं न विद्यते ॥
(शिव
स्वरोदय २६)
जब
तक तत्त्वज्ञान नहीं हो जाता तब तक नाम-रूप आदि सभी भ्रम मिथ्या हैं और अज्ञान
जनित मूढ़ता भी तभी तक है।
इडादि में चन्द्र, सूर्य और शिव का निवास
इडायां
तु स्थितश्चन्द्र: पिंगलायां च भास्कर: ।
सुषुम्ना
शम्भु रूपेण शम्र्भुहँस स्वरूपतः ॥
(शिव
स्वरोदय ५०)
इडा
में चन्द्रमा और पिंगला में सूर्य की विद्यमानता है। सुषुम्ना शम्भु रूप में और
शम्भु हंस रूप में स्थित हैं।
ह
कारो निर्गमे प्रोक्त: सकारेण प्रवेशनम् ।
ह
कार: शिव रूपेण सकारः शक्तिरुच्यते ॥
(शिव
स्वरोदय ५१)
श्वाँस
के निकलने में ‘ह कार’ और प्रविष्ट होने में ‘स
कार’ होता है ‘ह कार’ शिव रूप और ‘स कार’ शक्ति रूप
कहलाता है।
तत्त्वज्ञानेन
मनोनाशम् वासना क्षय एव च ।
मिथ:
कारणतां गत्वा दुः साधानि स्थितान्यतः ॥
(शिव
स्वरोदय ५२)
मन
का नाश और वासना का क्षय तत्त्वज्ञान से ही होता है। परस्पर कारण रूप होने के कारण
यह दुःसाध्य है।
याज्ञवल्क्य जी का उपदेश
(श्री रामोत्तर
तापनीययोपनिषद – खण्ड १ से)
जो
अनिर्वचनीय परमात्मा श्रीराम हैं, वह मैं ही हूँ। इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए। ॐ
तत् सत् और परमब्रम्ह आदि नामों से प्रतिपादित होने वाले जो चिन्मय श्री रामचन्द्र
जी हैं, वह मैं ही हूँ। ॐ सच्चिदानन्दमय परम-ज्योतिस्वरूप जो
श्रीरामचन्द्र हैं, वह मैं ही हूँ। वह मैं ही हूँ इस प्रकार
अपने को सामने लाकर मन द्वारा परमब्रम्ह परमात्मा श्रीराम के साथ एकता करें—भगवान
के साथ अपने का चिन्तन करें।
जो
लोग सदा यथार्थ रूप से समझ कर ‘मैं राम हूँ’ यौं (इस
प्रकार) कहते हैं, वे संसारी नहीं हैं,
निश्चय ही वे श्रीराम के ही स्वरूप हैं, इसमें तनिक भी
सन्देह नहीं है।
अफसोस
है, और अफसोस ही नहीं, महान अफसोस है कि सत्ययुग से
लेकर कलियुग तक के सभी आत्मा की साधना वाले महात्मा ही आत्मा को ही परमात्मा, साधना (योग) को ही तत्त्वज्ञान तथा स्वयं को ही महात्मा के स्थान पर, श्रीराम, श्रीकृष्ण,
परमब्रम्ह और अवतारी (भगवान) भी घोषित कर दिये हैं तथा कर रहे हैं। कोई ॐ (अ, उ, म) की साधना वाला है तो कोई आत्मा (सः और
ज्योति) की; परन्तु स्वयं को ब्रम्ह,
अवतारी और राम तथा कृष्ण आदि घोषित करने में संकोच भी नहीं होता, क्योंकि श्रीराम जी और श्रीकृष्ण जी ॐ, प्राण तथा
आत्मा (सः और ज्योति) वाले ही नहीं थे बल्कि, इन सभी को उत्पन्न
तथा लय करने वाले परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् वाले थे।
जिस
प्रकार आत्मा वाले याज्ञवल्क्य जी को रामजी बनने में थोड़ा भी संकोच नहीं हुआ, ठीक उसी
प्रकार श्रीहंस जी, सतपाल तथा श्रीबालयोगेश्वर जी को (दोनों
श्री हंस जी के पुत्र हैं) जो मात्र सोsहँ (श्वाँस प्रश्वाँस
द्वारा सः रूपी आत्मा का हं रूपी जीवमय होने वाली पतनोन्मुखी स्थिति है। यह तो कोई
योग-अध्यात्म की साधनात्मक क्रिया भी नहीं है) ज्योति (ध्यान द्वारा) तथा खेचरी और
अनहद की साधना कराकर अपने अनुयायियों तथा अज्ञानी जनमानस के समक्ष इसी को ही
तत्त्वज्ञान तथा अपने को अवतारी घोषित करने में थोड़ा भी संकोच-शरम नहीं हो रहा है।
इसी प्रकार साईं बाबा, महर्षि मेंही (मृत), महर्षि महेश योगी, आनन्द मूर्ति जी (मृत), श्री गुरुबचन सिंह जी (मृत), श्री जय गुरुदेव उर्फ
सन्त तुलसीदास, योगानन्द जी (मृत), प्रजापिता
ब्रम्हकुमारी आदि अनेक धार्मिक संस्थायें स्थापित करके मात्र साधना (योग)
प्रक्रियाओं को ही कराने वाले उन्ही साधना प्रक्रियाओं को ही तत्त्वज्ञान—कुछ तो
योग-अध्यात्म की क्रिया के स्थान पर मनमाना विचार-बुद्धि को ही योग-अध्यात्म और
तत्त्वज्ञान भी घोषित कर करा रहे हैं। जैसे प्रजापिता ब्रम्हा (लेखराज)
कुमार-कुमारी-आशाराम-सुधान्शु-मुरारी-बापू-पाण्डुरंग शास्त्री आदि- आदि और स्वयं
को अवतारी तथा पूर्ण गुरु, सद्गुरु आदि घोषित करने में
संकोच-शरम नहीं कर रहे हैं। किन्तु जब परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा
वाला शरीर उस परमतत्त्वम् की (अपनी) जानकारी, दर्शन तथा
बात-चीत कराते हुये पहचान रूप तत्त्वज्ञान जिसमें कि किसी भी योग-साधना
(पतनोन्मुखी सोsहँ और उर्ध्वमुखी हँसो ज्योति) आदि की
आवश्यकता ही नहीं पड़ती है, के द्वारा सभी ॐ, सोsहँ, हँसो तथा मैं-मैं, तू-तू को परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप
भगवत्तत्त्वम् से ही उत्पन्न तथा उसी में लय कराते हुये दिखलाएगा, तब ये लोग समाज में किस लायक रह जायेंगे ? थोड़ा भी
इस पर विचार करते तो इस प्रकार योग-साधना के अंगों-उपांगों को बता व करा कर अपने
को तत्त्वज्ञानी (पूर्णज्ञानी), अवतारी अटता पूर्ण गुरु
(सद्गुरु) घोषित नहीं करते। दिखलाना तो शुरू कर ही दिये हैं मगर सामान्यतः समाज को
उसे स्वीकार करने में थोड़ा समय तो लग ही जाएगा-फिर तो ये लोग किस लायक रह जायेंगे ? समाज में मुँह दिखाने लायक रह जायेंगे क्या?
बिल्कुल ही नहीं।
सतपाल
और बालयोगेश्वर जी किस विचार से अपने को अवतारी घोषित कर रहे हैं? यह
विचारणीय बात है, क्योंकि इनके पिता श्री हंस जी भी इन्हीं
पतनोन्मुखी योग-साधनाओं (सोsहँ, नाद
खेंचरी तथा ज्योति) को कराते थे तथा श्री हंस जी के गुरु श्री स्वरूपानन्द जी भी
इन्हीं साधनाओं को कराते थे। श्री ब्रम्हानन्द जी भी इन्हीं क्रियायों को जनायें
हैं। नानक, कबीर, तुलसी आदि समस्त
सन्त-महात्मा ही इन्हीं प्रक्रियायों को करते-कराते रहे हैं और करा भी रहे हैं तो
फिर अवतारी मात्र ये लोग ही कैसे हो गये? तब तो सभी
सन्त-महात्मा ही अवतारी ही कहलायेंग!
अतः
इन उपर्युक्त सन्त महात्माओं अथवा योग साधनाओं का प्रचार करने वालों द्वारा स्वयं
को ब्रम्ह, भगवान, पूर्ण-ज्ञानी,
तत्त्व-ज्ञानी, सद्दगुरु या अवतारी घोषित कराना या करना, भ्रामक प्रचार के रूप में समाज को भ्रामित कर परमात्मा से हटाकर उसी के
स्थान पर पतनोन्मुखी सोsहँ-(ऊर्ध्वमुखी हँसो भी नहीं) और
ज्योति नाम-रूप वाली आत्मा को ही परमतत्त्वम् नाम-रूप वाला परमात्मा घोषित कर-करा
कर परमात्मा व धर्म के नाम पर समाज को धोखा दिया जा रहा है,
छला जा रहा है। धन-धरम दोनों को ही शोषित किया जा रहा है। इन लोगों को चाहिए कि जब
योग-साधना की प्रक्रिया मात्र को ही सिखला और करा रहे हैं,
वह भी सही नहीं बल्कि गलत और उल्टी पतनोन्मुखी सोsहँ को, फिर तो अपने को योगी-महात्मा एवं ऋषि-महर्षि मात्र ही घोषित कराएँ, अवतारी नहीं तथा अपनी साधना-प्रक्रियाओं को योग-साधना मात्र ही घोषित
करें, तत्त्वज्ञान नहीं।
इन
लोगों को यह भी चाहिए कि योग-साधना रूपी पीतल को तत्त्वज्ञान ज्ञान रूपी सोना कह
कर व प्रदान कर अज्ञानी जन-मानस को भ्रमित करते हुये धोखा न दें क्योंकि अब
परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् (नाम-रूप से रहित तथा
सम्पूर्ण नामरूपों का उत्पत्ति तथा विलय कर्ता रूप परमात्मा) का अविनाशी परम आकाश
रूप परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण हो चुका है। इसलिए अब इन प्रत्येक लोगों का
पर्दाफाश हुये बिना बाकी (शेष) नहीं रहेगा, क्योंकि समाज सुधारक तो कोई हो
सकता है, परन्तु समाजोद्धारक तथा दुष्ट-संहारक एक मात्र वही
आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान् ही होता है।
अतः
महान अफसोस की बात है कि नाद-खेचरी तथा मात्र पतनोन्मुखी सोsहँ जो हर
जीवित शरीर में ही सहज ही हो रहा है, और ज्योति रूपी आत्मा
को ही भगवान् तथा उसकी अजपा (श्वाँस-प्रश्वाँस) और ध्यान प्रक्रियाओं को ही
तत्त्वज्ञान और अपने को योगी के स्थान पर पूर्ण ज्ञानी,
तत्त्वज्ञान-दाता साथ ही अवतारी भी एक साक्षात्कार तथा प्रवचनों में घोषित किया जा
रहा है जिसमें फँस कर लाखों भगवत्तप्रेमी भक्त परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम्
शब्दरूप परमात्मा की जानकारी, दर्शन,
बात-चीत करते हुये पहचान करने तथा मुक्त होने से वंचित हो रहे हैं। ऐसा कर्म एक
महान् धोखा है जो नहीं करना चाहिए। कदापि नहीं चाहिए।
श्री बालयोगेश्वरजी द्वारा तथाकथित ‘शान्ति बम
विस्फोट!’
(दिनांक ९ नवम्बर १९६०)
‘’प्रेमी सज्जनों! इस संसार के अंदर भगवान का, सच्चे महापुरुष
का, सच्चे गुरु महाराज का पदार्पण हो चुका है। मैं पूर्ण आ
गया हूँ संसार के अन्दर। जब-जब धर्म की हानि होती है तब-तब मैं प्रकट होता हूँ। अब
मैं आ गया हूँ। मैं पूर्ण हूँ। जो काम राम और कृष्ण ने नहीं किया, वह कर्म करके दिखलाऊँगा। नेता जी सुभाष की तरह मेरा नारा है-----तुम मुझे
प्रेम दो, मैं तुम्हें शान्ति दूँगा’।
आओ मेरे पास, तुम अपने जीवन की बागडोर मेरे हाथों में दो, मैं तुमको पार उतारूंगा। अरे! मैं दूँगा तुमको शान्ति। क्यों ढूँढते हो
दुनिया में। दुनियाँ में नहीं रखी है शान्ति। शान्ति मेरे पास है, आओ मैं तुम्हें बताऊँगा शान्ति का मार्ग। और सचमुच में तुमने मुझे दिल से
अपने जीवन की बागडोर दी तो मैं गुरु महाराज जी की कसम खाकर कहता हूँ, गुरु जी महाराज की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मैं तुमको शान्ति दूँगा। मैं
क्या हूँ? मैं तो रमता योगी राम, मेरा
दुनियाँ से क्या काम। मुझे दुनिया देगी क्या? अरे ले सकती है
दुनिया, देगी क्या दुनिया मुझको! अरे जो प्रेम दोगे वह प्रेम
तुम्हारा क्या है, मेरा ही तो प्रेम है। अरे तुम मेरी चीज
वापस दे दो और मैं तुम्हें कुछ दूँगा। मेरे पास एक ऐसा ज्ञान है कि मैं पूरी
दुनिया को, दुनिया की एक-एक चींटी से लेकर हाथी तक को, चिड़िया से लेकर मच्छर तक को, मनुष्य से लेकर जानवर
तक को, मैं उस प्रेम के धागे में बाँध करके अपने काबू में कर
सकता हूँ। वही ज्ञान जो भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को दिया था। वही ज्ञान लेकर मैं
दिल्ली वासियों को, तुम देख लेना। वह समय आ चुका है जब
अशान्ति का नाश होगा और सत्ययुग लगने वाला है, जल्दी ही।
चाहे इसको मेरी भविष्य वाणी मानो या चाहे कुछ भी मानो पर अब जल्दी ही सतयुग लगने
वाला है। जल्दी ही दुनिया को एक बार फिर सबक सिखाना है शान्ति का। अरे वह कलियुग
अब छूट जाएगा, अब सतयुग लगने वाला है। लोग मेरी बातों को
सुनेंगे। ये जो मच्छर (दुष्ट जन) आगे-पीछे घूमते रहते हैं,
जो यह बरसाती कीड़े-मकोड़े घूमते रहते हैं, जो दुनिया को
अंधकार में डालते हैं, इनका सफाया होगा, एक-एक के कान खोल दो कि आ गए हैं तुमको ज्ञान देने वाले, आ गए हैं तुमको सच्चा मार्ग बताने वाले। अरे तुम मेरी चीज वापस दे दो और
मैं तुम्हें कुछ दूँगा। वह ऐसी चीज दूँगा तुमको कि राज्य के अन्दर एक भी पिस्तौल
नहीं रहेगी। एक भी बन्दूक नहीं रहेगी। एक भी लीडर खड़ा होकर नारा नहीं लगायेगा। एक
भी फौज का आदमी नहीं रहेगा और प्रेमी सज्जनों, फिर भी शान्ति
रहेगी। यह जो बड़े-बड़े नेता हैं, यह समझते हैं कि यह राज्य
करने आया है। हाँ, मैं राज करूँगा इस संसार में और देखना, कैसे करता हूँ राज्य, देखना मैं इस संसार में राज्य
करता हूँ। एक-एक बकरी और शेर आपस में गले मिलेंगे। अरे कोई ऐसा राजा हुआ है क्या? मैं तो कहता हूँ मैं राज करना चाहता हूँ, दो मुझे
राज्य करूँगा। मैं राज्य, पर ऐसा राज्य करूँगा कि न तो राम
ने किया होगा, न हरिश्चन्द्र राजा ने किया होगा, न कृष्ण ने किया होगा और न तो राम ने किया होगा। ऐसा राज्य। तुम समझो और
मेरी बात पर विश्वास करो। तुम मुझे प्रेम दो, मैं तुम्हें
शान्ति दूँगा। और शान्ति भी ऐसी दूँगा कि अमेरिका का राष्ट्रपति तुम्हारा पैर छूने
आयेगा मुझे केवल अवसर।‘’
श्रीबालयोगेश्वरजी द्वारा विश्व को कड़ी चेतावनी
(दिनांक २ अक्टूबर १९७१---कनाडा में)
‘’अमेरिका इतना धनी होते हुये भी क्या सुखी है मुझे बताओ?
यदि
अमेरिका सन्तुष्ट है तो फिर वियतनाम से लड़ाई क्यों? अमेरिका ने चाँद पर अपोलो
भेजे, क्या उसे वहाँ से कुछ मिला? रंच
मात्र भी नहीं, बिल्कुल नहीं। जिस अमेरिका ने पानी की तरह
पैसा बहाकर चाँद पर मनुष्य को उतार दिया, अब उसे ही शान्ति
नहीं मिली तो सारा विश्व शान्ति कैसे प्राप्त करेगा? अब
तुम्हें अपनी प्रगति का फल शीघ्र मिलने वाला है बमों का विस्फोट भयंकर आवाज़े अकाल
तथा मृत्यु जैसी घटनाएँ देखो-देखो! उस पुरानी घड़ी की ओर,
टक-टक करती हुई किस प्रकार तेजी से चल रही है। उसी प्रकार यह समय भी तेजी से आ रहा
है। इन बमों के विस्फोट, अकाल और टैंकों की गड़गड़ाहट को लेकर
भयंकर घटनाएँ घटेंगी लाखों लोग मरेंगे ज्वालामुखी फटेंगे लोग तबाह हो जायेंगे।
चारों ओर त्राहि-त्राहि माच जाएगी और वही लोग बचेंगे जो उस ज्ञान ज्योति रूपी कवच
को ग्रहण करेंगे। इसके अतिरिक्त सब नष्ट हो जायेंगे वास्तव में सब समाप्त हो
जायेंगे। तुम जानते हो यह क्या है? यह वही है जिसके लिए जीसस
ने भविष्य वाणी की थी—जब परमेश्वर का राज्य निकट से निकट आयेगा तव विचित्र प्रकार
की घटनाएँ घटेंगी---और जब ये बातें हो जायेंगी तब सब परमेश्वर के सार्थ होंगे। वह
(परमेश्वर) इस प्रकार घूमेंगे जैसे लोग घूम रहे हैं। उनके पास चाकू छुरी तथा बम
आदि नहीं होंगे वहाँ टैंकों और बन्दूकों की गड़गड़ाहट न होगी अकाल और भुखमरी न होगी।
चारों ओर प्रेम और शान्ति का साम्राज्य होगा तथा इस प्रकार के भयंकर दृश्य न होंगे।
उस समय परमेश्वर समस्त विश्व पर राज्य करेगा तब सभी लोग आनंद और चैन से रहेंगे। इसलिए
तुम अभी से तैयार हो जाओ और अपने आप की सुरक्षा के लिए प्रत्यन करो, तभी बचोगे। नहीं तो याद रखो, बम के सबसे पहले शिकार
तुम बनोगे।‘’
वह
कहते हैं कि ‘’ भौतिक मूल्यों को फेंको और ह्रदय में निहारो; ज्ञान
की माँग करो और मैं तुम्हें दूँगा’’ आपने (बालयोगेश्वर जी) ने
एक दिन एक गुप्त रहस्य को उद्घाटित करते हुये कहा था----‘’ जब
मैं छः वर्ष का था मेरे पिता जी (श्री हंस जी) ने अन्य भ्राताओं सहित मुझे ज्ञान प्रदान
किया, मुझे ज्ञान मिला किन्तु मैं ठीक प्रकार से उसको समझ न सका।
मुझे यह लगा कि यह मेरा कर्तव्य है और मैंने अभ्यास करना आरम्भ किया और लगभग एक माह
में मैंने उसका साक्षात्कार किया।‘’
‘’गुरु पुजा उत्सव’’ के प्रथम दिवस पर आपने अपने प्रवचन
में कहा----वास्तव में मैं एक पूर्ण गुरु हूँ क्योंकि मैं उन्हें शान्ति दे सकता हूँ
और मैं नहीं कह रहा हूँ कि मैं इस कारण से या उस कारण से पूर्ण हूँ परंतु साधारणतया
एक कारण के लिए वह यह कि मैं उन्हें यह ज्ञान दे सकता हूँ जो कि पूर्ण है।‘’ १४ जुलाई १९७३ को प्रवचन करते हुये आपने कहा----मैं धन के लिए नहीं कहता, मैं तुम्हारी किसी वस्तु की माँग नहीं करता। कुछ न करो। मैं केवल एक छोटी
सी सहायता माँगता हूँ। मात्र मेरे लिए एक सहायता करो, भगवान्
को जानो, यही कुछ----मैं तुम्हारी थोड़ी सहायता करूँगा। मैं तुम्हें
भगवान दिखा सकता हूँ और वह यही सब है, तुम देखो, लोग मेरे विषय में विभिन्न प्रकार की बातें लिख चुके हैं। ओह! उन्होंने वह
किया, उन्होंने वह किया। परन्तु उस पर कभी किसी ने तर्क नहीं
किया जो कि वास्तव में मैं लोगों को दे चुका हूँ। मुझे और कुछ बात नहीं कहनी है। यह
केवल एक साधारण बात है------भगवान् को जानो, मुझे नहीं, नहीं, मुझे नहीं। अन्य किसी को नहीं, केवल भगवान् को।‘’
‘’क्या ही अच्छा
होता कि श्री बालयोगेश्वर जी नाद-खेंचरी तथा सोsहँ (जबकि सोsहँ---सः रूपी आत्मा का हं रूपी जीवमय होने वाली पतनोन्मुखी स्थिति है, योग-अध्यात्म की कोई साधनात्मक क्रिया भी नहीं है) और ज्योति रूपी योग-साधना
और आत्मा को, योग-साधना और आत्मा ही तथा अपने को योगी गुरु ही
घोषित करते, न कि मिथ्या अभिमानवश तत्त्वज्ञान और भगवान् (परमात्मा)
तथा अपने को सद्गुरु या अवतारी।‘’ उनके अनुयायी उनके ही स्पष्ट
कथन कि ‘मुझे और कुछ बात नहीं कहना है,
यह केवल एक साधारण बात है----भगवान् को जानो, मुझे नहीं, नहीं मुझे नहीं! अन्य किसी को नहीं, मात्र केवल भगवान्
को!’’—को ग्रहण करते-स्वीकार करते तो निश्चित ही कल्याण हो जाता।
मगर अफसोस पर अफसोस कि उनके इतने स्पष्ट कथन को भी उन्हीं के अनुयायीजन स्वीकार नहीं
करते हैं। फिर तो उनसे क्या पाना चाहते हैं?