विज्ञान, अध्यात्म और तत्वज्ञान (एक तुलनात्मक विवेचन)

विज्ञान, अध्यात्म और तत्वज्ञान (एक तुलनात्मक विवेचन)

अध्यात्मवेत्ता , तत्त्ववेत्ता नहीं अपितु आत्मवेत्ता होता है। आत्मज्ञान, तत्त्वज्ञान नहीं , मात्र जीव का आत्मा से मिलन व दर्शन हैं।
आत्मज्ञान + ब्रम्हज्ञान + तत्त्वज्ञान  = आत्मतत्त्वम् शब्दरूप का ज्ञान

1॰ Human  body is the supreme machine  of the Universe.
2॰ Self is nothing  into exit.
3॰ Soul  is something into exit.
4॰ GOD is everything. GOD is not body but source of all powers.
The deeply form of power is matter.

Hans ji said: The Knowledge of the self is the only True Knowledge.

Sant Gyaneshwar Swami Sadanand ji paramhans says ‘The Knowledge of the Self is not True Knowledge nor is the Knowledge of the soul true, but the Knowledge of GOD is lonely and exclusively True KNOWLEDGE. GOD is neither Self nor Soul but HE is the source of Souls.’

हंस जी----स्व मात्र का ज्ञान सत्य ज्ञान है।
सदानन्द जी---जीव-स्व-अहं का ज्ञान सत्य-ज्ञान नहीं है और आत्मा-ईश्वर-शिव-ज्योति का ज्ञान भी तत्त्वज्ञान रूप सत्य-ज्ञान नहीं है अपितु परमात्मा-परमेश्वर का ज्ञान मात्र ही सत्य ज्ञान है। परमात्मा स्व और आत्मा नहीं है बल्कि आत्मा का भी पितारूप उद्गम श्रोत है।

१॰ शरीर के लिए आत्मा आक्सीजन जैसा (आक्सीजन ही नहीं) तथा स्व (जीव) कार्बन डाई आक्साइड जैसा (कार्बन डाई आक्साइड ही नहीं) होता है तथा इनकी क्रियाएँ प्रक्रियाएँ भी समान (एक जैसा) ही होती हैं।

२॰ जहाँ से आत्मा उत्पन्न होकर शरीर में आता है तथा जीव शरीर से निकल कर तत्त्वज्ञान में जाकर जहाँ पर विलय होता है, वही परमात्मा है।

अध्यात्म ज्ञान-----अध्यात्म का अर्थ है आत्मा की ओर अर्थात् ‘’जीव का आत्मा से मिलन व दर्शन मात्र ही अध्यात्म कहलाता है।‘’

विज्ञान:- प्रयौगिक विशिष्ट ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। जड़ पदार्थों का प्रायौगिक अध्ययन–विधान ही विज्ञान है ।

जीव का आत्मा से मिलन की प्रक्रिया ही योग-अध्यात्म होता है।
शरीर पाँच जड़ पदार्थ तत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, थल) से बनी हुई सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ मशीन है, जिसमें इंगला व पिंगला नामक दो प्रकार की ऋण व धन विद्युत तार रूपी नाड़ियों से, वायु या आक्सीजन के साथ, आत्मा रूपी विद्युत अंदर प्रवेश करती है तथा कार्बन डाई आक्साइड के साथ अहं(जीव) बाहर निकलता है। यह प्रक्रिया शरीर में लगातार चलती रहती है। जब तक यह क्रिया शरीर में होती रहती है तब तक तो शरीर जीवित (जीव से युक्त) कहलाता है, और जैसे ही यह प्रक्रिया जीव के शरीर से हमेशा के लिए बाहर निकल जाने से अपने आप बन्द हो जाती है, वैसे ही यह शरीर निर्जीव (जीव से रहित) या लाश कहलाने लगता है।
       वैज्ञानिकों द्वारा श्वसन-क्रिया (Action of Respiration)- फेफड़ों द्वारा श्वसन में दो क्रियाएँ साथ ही साथ होती हैं

1- श्वसन (Inspiration)
2- उच्छ्वसन (Expiration)

       श्वसन क्रिया में जन्तु अपने किसी विशेष अंग की सहायता से वायुमण्डल की आक्सीजन(O2) को अन्दर लेता है और बदले में उतनी ही कार्बन डाई आक्साइड (CO2) शरीर से बाहर निकालता है। यह क्रिया लगातार होती रहती है। वास्तव में श्वसन एक जटिल क्रिया है। इसके अन्दर ली गई आक्सीजन (O2) शरीर के विभिन्न ऊतक कोशिकाओं में पहुँचती रहती है और उनमें संचित भोज्य पदार्थों (जैसे ग्लूकोज) का आक्सीकरण करती है, जिससे भोज्य पदार्थों में संचित ऊर्जा मुक्त होती है। इस क्रिया में कार्बन डाई आक्साइड (CO2), यूरिया (NH3), जल वाष्प (H2O), आदि पदार्थ बनकर बाहर निकलते हैं।
C2H12O6 + 6O2-> 6CO2+ 6H2O + 673 Cal (ऊर्जा)
CO2+ H2O -> H2CO3 (कार्बोनिक अम्ल)
Blood + O2-> Red Blood -> Pure Blood 

(आक्सीजन युक्त रक्त -> लाल रक्त -> शुद्ध रक्त ) 

कार्बन डाई आक्साइड युक्त रक्त -> बैंगनी रक्त -> अशुद्ध रक्त 
अतः शुद्ध रक्त के लिए श्वसन क्रिया अनिवार्य है।

       
अध्यात्मिकों द्वारा श्वसन-क्रिया 
(अजपा-जाप) 

अजपा-जाप में दो क्रियाएँ साथ ही साथ होती हैं- 
1- श्वांस (Inspiration) 
2- प्रश्वांस-निः स्वांस (Expiration)

      अजपा-जाप (श्वसन क्रिया) में मनुष्य या जन्तु अपने हृदय गुफा की सहायता से वायु द्वारा स्वांस लेते समय लेते समय आत्मा (सः) प्रवेश करती है और उतनी ही मात्र में निःस्वांस के समय जीव (अहं) शरीर से बाहर निकलता है। यही क्रिया अजपा-जाप कहलाती है। यह कोई योग की क्रिया नहीं है बल्कि श्वसन क्रिया की सहज स्थिति है। वास्तव में स्वांस-निःस्वांस और योग-साधना जटिल क्रियाएँ हैं। स्वांस से प्रवेश करने वाली वायु शरीर के विभिन्न अंगों में विभिन्न नामों व कार्यों में परिणित हो जाती है। जैसे प्राण, अपान, समान, उदान, और व्यान ये पाँच प्रधान वायु तथा नाग, कुर्म, कृकल, देवदत्त, आर धनञ्जय ये पाँच उपवायु कहलाती हैं। प्राण हृदय में, अपान गुदा में समान नाभिदेश में, उदान कण्ठ में और व्यान वायु सम्पूर्ण शरीर में निवास करते हुये अपना अपना कार्य करती हैं। पाँच उपवायु को देखें, नाग उदगार(बमन) में, कुर्म नेत्रोंमीलन में, कृकल छींकने में, देवदत्त जँभाई लेने में और सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त धनञ्जय वायु मृत शरीर का भी साथ नहीं छोड़ता। इस प्रकार वायु के दस भागों में विभाजित हुई शरीर में यह शक्ति आत्मा (सः) कार्य करते हुये, इस शरीर रूपी भूल भुलैया महल में भ्रमित होकर फँस जाती है। उसके बाद सत्त्व, रज, तम नामक गुणों से युक्त होकर, माया से सम्बन्ध स्थापित कर काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा मद आदि परिवार स्थापित कर जीव (अहं) रूप में परिवर्तित हो जाता है और संसार चक्र में सामान्य जन्तुओं की तरह आहार, निद्रा, मैथुन, भय आदि में ही पड़ा रहता है। उसके बाद जब कोई शरीर से अलग जीव (अहं) को आत्मा (सः) से मिलाने तथा आत्मा की पहचान कराने वाला, शरीर रूपी भूल भुलैया महल का आध्यात्मिक गाइड मिलता है तब वह गाइड (गुरु), जिस मार्ग से (अर्थात जिस स्वांस-निःस्वांस से) आप आत्मा (सः) इस भूल भुलैया रूपी नौ दरवाजों वाले महल में प्रवेश लिए थे और भ्रमित होकर आप जीव (अहं) बने थे, उसके बाद शरीरमय होकर बाल-बच्चों के साथ पारिवारिक बनकर फँसे थे, पुनः उसी मार्ग से (अर्थात निःस्वांस-स्वांस से) लौटाकर, भ्रमित रूपी आप जीव (अहं) को आत्मा (सः) से मिलाकर, ध्यान रूपी दिव्य दृष्टि से ज्योति रूप आत्मा का दर्शन करा देते हैं। यही अध्यात्म कहलाता है। इस प्रकार शरीर में स्वांस-निःस्वांस के द्वारा आत्मा (सः) स्वांस के साथ अन्दर तथा जीव (अहं) निःस्वांस के साथ बाहर हमेशा ही आता जाता रहता है। यही क्रिया अजपा-जाप कहलाती है।
       वैज्ञानिकों की श्वसन-क्रिया तथा ऊर्जा(Energy) ही अध्यात्मिकों का अजपा-जाप तथा ज्योति रूप आत्मा है। आध्यात्मिक लोग आत्मा को ज्योति रूप बताते हैं। वैज्ञानिक भी “Light is the form of Energy” ही कहते हैं। दोनों में जो मुख्य अन्तर है वह यह कि आत्मा ज्योति विशुद्ध चेतन युक्त होती है जबकि भौतिक ज्योति रूपा शक्ति चेतना विहीन होती है।
       दोनों ही श्वासोच्छ्वास की क्रिया से ही शक्ति की उत्पत्ति-स्थिति को एक स्वर से ही स्वीकार करते हैं। अन्तर दोनों में यह है कि वैज्ञानिक स्वांस(जो शरीर में प्रवेश करता है) को ही आक्सीजन (O2) तथा निःस्वांस(जो बाहर जाता है) को कार्बन डाई आक्साइड कहते हैं और आध्यात्मिक स्वांस के माध्यम से सः नाम आत्मा का शरीर में प्रवेश और निःस्वांस के साथ जीव(अहं) का सदा सर्वदा आना-जाना कहते हैं। साथ ही वैज्ञानिकों के अनुसार ऊर्जा (शक्ति) को देखा नहीं जा सकता है, परन्तु अध्यात्मिकों के अनुसार आत्मा को देखा जा सकता है। वास्तव में देखते तो दोनों ही हैं परन्तु वैज्ञानिक जड़ी या जड़ से संबंधित होने के कारण उनकी बुद्धि, विचार और जानकारी भी जड़ जैसी ही हो जाती है, जिसके कारण देखते हुये भी अदृश्य घोषित कर देते हैं। जबकि शक्ति दृश्यमान है। आध्यात्मिक चेतन को ही सत्य स्वीकार करते हैं, जड़ को नहीं। जड़ को तो ये माया कहते हैं, स्वप्नवत कहते हैं, मिथ्या कहते हैं। परिवारिकता-शारीरिकता चेतन आत्मा को क्रमशः जीव और जीव का शरीरमय होता हुआ जड़वत संसार के रूप में परिवर्तित करने वाली एक पद्धति है जबकि अध्यात्म जड़ संसार व शरीर-परिवार से ऊपर जीव और जीव से चेतन आत्मा बनाने की एक पद्धति है। विज्ञान की जानकारी तथा प्रयोग जड़ तथा जड़ जगत से है जबकि अध्यात्म की जानकारी तथा प्रयोग शरीर व संसार से अलग होकर सूक्ष्म(जीव) तथा कारण(आत्मा) से संबंधित है।
       विज्ञान की उपलब्धि शीघ्र तथा सीमित समय मात्र के लिए ही होती है जबकि अध्यात्म की उपलब्धि धीमी गति तथा स्थायी रूप से होती है। विज्ञान की उपलब्धि शांति रहित तथा सुख-दुख वाली होती है जबकि अध्यात्म की उपलब्धि शांति से युक्त तथा आनन्द व चिदानंद वाली होती है। 
विज्ञान के अनुसार शरीर में प्रवेश करने वाला श्वाँस ही आक्सीजन (O2) तथा शरीर से बाहर निकलने वाला उच्छ्वास ही कार्बन डाई आक्साइड (CO2) जबकि अध्यात्म के अनुसार शरीर में प्रवेश करने वाले श्वाँस के साथ आत्मा (सः) तथा शरीर से बाहर निकलने वाले उच्छ्वास के साथ जीव (अहं) सदा-सर्वदा अज्ञानता में पतनोन्मुखी सोsहँ रूप में सहजता पूर्वक तथा जानकारी और योग-अध्यात्म के क्रिया द्वारा हँसो रूप में आता-जाता-होता रहता है। यह हँस ही शिव-शक्ति है।

हकारो निर्गमेप्रोक्त: सकारेण प्रवेशनम्।
हकार: शिवरूपेण सकार: शक्तिरुच्यते।।
(शि॰ स्व॰ ४१)
शिवजी कहते हैं---शरीर से उच्छ्वास द्वारा बाहर निकलते समय हंकार तथा श्वाँस प्रवेश करते समय सःकार ध्वनि होती रहती है। हकार शिव रूप तथा सकार शक्ति है।

हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुनः।
हंसोहँसेति मंत्रेण जीवो जपति तत्त्वतः।।
(ग॰ पु॰ ७२)
श्री विष्णु जी कहते हैं----यह प्राण हंकार ध्वनि के साथ बाहर तथा सःकार ध्वनि के साथ भीतर आता है। इस प्रकार जीव तत्त्वतः (तत्त्व द्वारा) जानकर हंस’, हंस’, मंत्र का जप करता रहता है।

हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुनः।
हँस हँसेत्यमुं मंत्र जीवो जपति सर्वदा।।
‘’ध्यान विंदोपनिषद्’’
यह प्राण हं कार ध्वनि द्वारा बाहर जाता तथा सः कार ध्वनि के साथ अंदर आता है। इस प्रकार जीव सर्वदा ही हंस मंत्र का जाप करता रहता है।
यह तो मानना ही पड़ेगा कि विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही एक समान प्रायौगिक विशिष्ट ज्ञान हैं। दोनों ही शक्ति को ध्वनि और प्रकाश (Sound and light) तथा नाम (हँस) और ज्योति एक स्वर से स्वीकार करते हैं। अन्तर इतना ही है कि विज्ञान जड़ से सम्बंधित है जिसका उच्चतम व अंतिम परिणाम चेतन आत्मा को जड़ जगत् की मान्यता में परिवर्तित कर देना है। उदाहरणार्थ वायुमण्डल को दूषित तथा नाना तरह की तेज ध्वनियों से समस्त वातावरण को अशान्त बनाते हुये नाना तरह के स्वचालित आयुधों (शस्त्रों) मिशाइल तथा एटम व न्यूट्रान आदि बमों से शरीरमय जीव जो पूर्व में चेतन आत्मा था, उस चेतन आत्मा जीव होता हुआ जीव जो शरीरमय है को परिवर्तित करके जड़ जगत् बनाता है और अध्यात्म चेतन आत्मा से सम्बंधित है जिसका उच्चतम् व अंतिम परिणाम जड़ (संसार व शरीर) से जीव को ऊपर उठाकर आत्मामय बना देता है जिससे दूषित वायुमण्डल व अशान्त वातावरण के साथ ही एटम व न्यूट्रान आदि बमों का भी कोई प्रभाव न पड़े क्योंकि चेतन आत्मा किसी भी सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु से भी सूक्ष्म होती है। यही कारण होगा कि आत्मामय अस्तित्त्व तक बन जाने वालों पर भी वैज्ञानिक विनाश का कोई दुस्प्रभाव नहीं पद सकता है।   
अन्ततः सब कुछ के बावजूद भी विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही एक समान प्रयौगिक पद्धति हैं। इसके बावजूद भी विज्ञान व अध्यात्मज्ञान में से कोई ही तत्वज्ञाननहीं कहला सकता है, क्योंकि विज्ञान चाहे जितना भी विकास कर ले फिर भी वह जड़ जगत तक ही सीमित रहेगा, उससे ऊपर नहीं जा सकता है। और अध्यात्म चाहे जितनी भी उच्चतम अवस्था में क्यों न पहुँच जाए फिर भी वह आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म से ऊपर नहीं जा सकता। क्योंकि आत्मा ही अध्यात्म का अभीष्ट लक्ष्य होता है। इस प्रकार विज्ञान जड़ (संसार व शरीर) और अध्यात्म चेतन (जीव से आत्मा) मात्र का ही प्रयौगिक ज्ञान होता है; जबकि तत्वज्ञान जड़ और चेतन (आत्मा) दोनों के उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता का एकमात्र-प्रायौगिक तथा व्यवहार पद्धति से, परिचयपत्र होता है जो परम आकाश रूप परम धाम से भूमण्डल पर अवतरित एकमात्र परमतत्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता द्वारा किसी एक शरीर विशेष को अधिग्रहीत (धारण) कर, उसी शरीर विशेष के माध्यम से परमतत्त्वम् रूप परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान (पूर्ण परिचय) ही तत्वज्ञान कहलाता है।
उदाहरणार्थ – श्री रामचरित मानस के इस दोहे को देखें –

दोहा—जड़ चेतन गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार ।
संत हंस गुण गहहिं पय परिहर वारि विकार ॥
व्याख्या—जड़ और चेतन (आत्मा) रूप दो वस्तुओं से गुण और दोषमय दो पद्धतियों द्वारा कर्त्तार (ब्रम्हा, विष्णु, महेश तथा महामाया से युक्त सृष्टि को उत्पन्न करने वाला खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता) ने विश्व की रचना किया है जिसमें सन्त को हंस का गुण ग्रहण करने वाला; क्षीर व नीर (दूध व पानी) जैसी घुली मिली वस्तु से भी हंस उसमें सार (यथार्थ) रूप दूध को ग्रहण कर, असार रूप पानी को छोड़ देता है तो सन्त को भी जड़ और चेतन (आत्मा) से युक्त संसार व शरीर से सार (यथार्थ) रूप चेतन (जीव व आत्मा या अहं व सः या जीवात्मा हँसो) को ग्रहण कर असार रूपी शरीर को असार रूप असत्य व दोष को त्याग देना चाहिए।
अतः जड़ से सम्बंधित जानकारी – सांसारिक ज्ञान व विज्ञान जानकार विद्वान व वैज्ञानिक तथा चेतन से सम्बंधित जानकारी योग-साधना या अध्यात्म का जानकार योगी, सिद्ध-साधक, महर्षि या सन्त, महात्मा व गुरु कहलाते हैं। जब कि जड़ से सम्बंधित सम्पूर्ण कर्मों की व चेतन जीवात्मा (हँसो) से सम्बंधित सम्पूर्ण अध्यात्म तथा दोनों को उत्पन्न, संचालन व विलय या संहार करने वाले परमब्रम्ह परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता के पूर्ण ज्ञान (पूर्ण परिचय) रूप तीनों (जड़, चेतन तथा कर्त्तार) की पूर्ण जानकारी व परिचय-पहचान ही तत्त्वज्ञान कहलाता है तथा तत्त्वज्ञान का जानकार तत्त्वज्ञानदाता या अवतारी या सद्गुरु कहलाता है। उदाहरणार्थ – परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा वाली शरीर वाले श्री कृष्ण जी महाराज की वाणी जो गीता में है देखें –

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रम्ह तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ७/२९)
जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं वे पुरुष उस ब्रम्ह को तथा सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं।
चूँकि उस समय लगभग सम्पूर्ण अध्यात्म वेत्ता ही हँसो तथा ज्योति रूप जीवात्मा को ही परमात्मा या ब्रम्ह तथा उसकी साधना – प्रक्रिया रूप अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान घोषित कर दिये थे, इतना ही नहीं स्वयं ही तत्त्वज्ञानी या तत्त्वज्ञान-दाता या सद्गुरु या अवतारी भी घोषित कर-करा लिए थे जिसके कारण भगवत् प्रेमीजन तो भ्रमित थे ही अर्जुन को भी उसी प्रकार का भ्रम जब हुआ तब उस भ्रम को दूर करने हेतु पूछा कि—

“किं तद्ब्रम्ह किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।”
(श्रीमद्भगवद्गीता ८/१)
अर्जुन बोले, हे पुरुषोत्तम ! जिसका आपने वर्णन किया वह ब्रम्ह क्या है? और अध्यात्म क्या है? तथा कर्म क्या है?’

अक्षरं ब्रम्ह परमं स्वभावोsध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ८/३)
इस प्रकार अर्जुन के प्रश्न करने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले हे अर्जुन ! परम अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता, ऐसा सच्चिदानन्द परमात्मा तो वह ब्रम्ह है, और अपना स्वभावरूप अर्थात् जीवात्मा (हँसो व ज्योति) अध्यात्म नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला त्याग, कर्म नाम से कहा गया है।

आत्मज्ञानदाता या अध्यात्मवेत्ता के अनुसार –
श्रीबालयोगेश्वर जी महाराज, सतपाल, श्री साईं बाबा, श्री आनन्दमूर्ति जी, रजनीश, श्रीराम शर्मा, श्री महेश योगी जी, श्री जनार्दन स्वामी जी आदि-आदि समस्त बनने वाले तथाकथित भगवानों व अवतारियों को अध्यात्म (वह भी उल्टी पतनोन्मुखी सोsहँ—आत्मा जीव की ओर) से अलग कुछ भी जानकारी नहीं है। इन अध्यात्मवेत्ताओं के कथनानुसार जड़ और चेतन अर्थात् शरीर और जीवात्मा के अतिरिक्त कुछ होता ही नहीं। जीवात्मा ही परमात्मा है तथा जीवात्मा की पद्धति ही अध्यात्म है और अध्यात्म ही तत्त्वज्ञान है। इन अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार शरीर रूप नौ दरवाजों वाले महल में रहने वाला जीवात्मा (हँसो) ही परमात्मा है तथा इसी के वश में जड़ और चेतन सम्पूर्ण जगत् होता है। परन्तु यथार्थतः ऐसी बात नहीं है। जीवात्मा को न तो कभी परमात्मा-परमेश्वर की मान्यता था और न होगा-रहेगा।
इतना ही नहीं, वह परमतत्त्वम् रूप परमात्मा ही जीवात्मा बनकर सभी प्राणियों के हृदय में वास करता जिसकी जानकारी, दर्शन व पहचान साधना के बिना नहीं हो सकता है। समस्त अध्यात्मवेत्तागण एक स्वर से ही इसी चेतन आत्मा को ही परमात्मा तथा शरीर में हृदय गुफा ही उनका वास स्थान आदि भी घोषित कर दिया है। साथ ही जीवात्मा (हँसो व ज्योति) की प्राप्ति के साधना को ही परमात्मा की जानकारी, दर्शन व बात-चीत करते हुये पहचान रूप तत्त्वज्ञान तथा अपने को अवतारी तक घोषित कर-करा लेते हैं जो नहीं करना-कराना चाहिए क्योंकि यह झूठ और गलत है। इन अध्यात्मवेत्ताओं द्वारा जो उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं पहले यहाँ आप सब उन्हे देख लेवें फिर आगे जो वास्तविक सच्चाई है उसे भी जानें-देखें फिर जो सत्य हो – लगे, ही स्वीकार करें। उदाहरणार्थ कुछ उपनिषद् के मंत्रों आदि को देखें –

नव द्वारे पुरे देही हँसो लेलायते बहि: ।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥
॥ श्वेता॰ ३/१८ ॥
व्याख्या—सम्पूर्ण स्थावर और जङ्गम जगत् रूप को अपने वश में रखने वाले वे जीवात्मा (हँसो) (योगी-आध्यात्मिकों के अनुसार) प्रकाशमय परमात्मा दो आँख, दो कान, दो नासिका, एक मुख, एक गुदा और एक उपस्थ – इस प्रकार नौ दरवाजों वाले मनुष्य शरीर रूप नगर में स्थित हैं और वे ही इस बाह्य जगत् में भी लीला कर रहे हैं।

एको हँसो भुवनस्यास्य मध्ये
             स एवाग्नि: सलिले संनिविष्ट: ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति
             नान्य: पन्था विद्यतेsयनाय ॥
॥ श्वेताश्वतरोपनिषद ६/१५ ॥
व्याख्या – इस ब्रम्हाण्ड के बीच में जो एक जीवात्मा हँसो (अध्यात्मिकों के अनुसार—प्रकाश स्वरूप परमात्मा) परिपूर्ण है। वही जल में स्थित अग्नि है। उसे जानकर ही मनुष्य मृत्यु रूप संसार से सर्वथा पार हो जाता है, दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। (जबकि मैं सन्त ज्ञानेश्वर कह रहा हूँ कि यह बिल्कुल ही गलत है केवल गलत कह ही नहीं रहा हूँ इसी उपनिषद से प्रमाणित भी तो करवा रहा हूँ--- आगे देखिएगा।)

हँस: शुचिषद् वसुरन्तरिक्षस-
द्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोसत् ।
नृषद् वरसदृतसद् व्योमसरव्जा
गोजा ऋतजा अद्विजा ऋतं बृहत् ॥
॥ कठोपनिषद् २/२/२ ॥
व्याख्या—जो प्राकृतिक गुणों से सर्वथा अतीत परम विशुद्ध परमधाम में विराजित स्वयं प्रकाशरूप परमब्रम्ह पुरुषोत्तम (योगी-अध्यात्मिकों के लिए (हँसो:) जबकि सत्यश: यह जीवात्मा हैं) वे ही अन्तरिक्ष में विचरने वाले वसु नामक देवता हैं, वे ही अतिथि के रूप में गृहस्थों के घरों में उपस्थित होते हैं, वे ही यज्ञ के वेदी पर प्रतिष्ठित ज्योतिर्मय अग्नि तथा उसमें आहुति प्रदान करने वाले होता हैं। वे ही समस्त मनुष्यों के रूप में स्थित हैं। मनुष्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ देवता और पितु आदि रूप में स्थित, आकाश में स्थित और सत्य में प्रतिष्ठित हैं, वे ही जलों में मत्स्य, शंख, शुक्ति आदि के रूप में प्रकट होते हैं। वे सभी दृष्टियों से सभी की अपेक्षा श्रेष्ठ, महान और परमसत्य हैं।
(श्री जयदयाल गोयन्दका का भाष्य)

अतः जितने भी अध्यात्मवेत्ता—चाहे वे श्री बालयोगेश्वर जी हों या सतपाल, श्री साईं नाथ हों या रजनीश, श्री आनन्दमूर्ति जी हों या श्री मेंही जी, श्री महेश योगी जी आदि तथाकथित बनने वाले भगवान् या अवतारी सभी अपने को जो कुछ भी मानें परन्तु एकमात्र सत्य यही है कि ये सभी लोग जीवात्मा वाले (हँसो व ज्योति वाले) आध्यात्मिक मात्र ही हैं ,वह भी उर्ध्वमुखी हँसो ज्योति (जीव आत्मा की ओर) वाला नहीं बल्कि पतनोन्मुखी सोsहँ (आत्मा जीव की ओर) वाला ही, इन लोगों को शरीर व जीवात्मा से अलग कुछ भी जानकारी नहीं होती है। परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा की जानकारी रूप तत्त्वज्ञान की यथार्थ जानकारी तो इन्हे बिल्कुल ही नहीं है, जीव-रूह-सेल्फ-अहं की भी जानकारी लेशमात्र भी नहीं होता है।

तत्त्वज्ञानदाता या तत्त्ववेत्ता के अनुसार
तत्त्वज्ञान परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वं रूप परमात्मा का वह ज्ञान है जिसके द्वारा खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता की जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पूर्ण पहचान होता है। जड़-चेतन रूप सृष्टि की उत्पत्ति इसी तत्त्व से हुई है। आत्म ज्योति की भी उत्पत्ति इसी तत्त्व से होती है तथा तत्त्वज्ञान द्वारा हँसो व ज्योति रूप जीवात्मा का इसी तत्त्व में विलय भी हो जाता है। हँसो व ज्योति रूप जीवात्मा इसी परमतत्त्वम् रूप परमात्मा द्वारा संसार चक्र में घुमाया जाता है तथा संसार चक्र से मुक्त भी किया जाता है। इस प्रकार जीवात्मा को ही परमात्मा कहना महान भूल मात्र ही नहीं अपितु और गलत भी है। श्वेताश्वतरोपनिषद् मन्त्र देखें ---

सर्वाजीवे सर्वसंस्थे वृहन्ते
                   अस्मिन् हँसो भ्राम्यते ब्रम्हचक्रे
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्त्वा
                   जुष्टस्ततस्तेनामृत्ततत्त्वमेति ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् १/६)
पदार्थ अस्मिन् = इससर्वाजीवे = सबके जीवका रूपसर्वसंस्थे = सबके आश्रय भूतबृहन्ते = विस्तृत;ब्रम्हचक्रे = ब्रम्हचक्र रूप संसार चक्र में ; हंस = जीवात्मा (हं=जीवसः=आत्मा)भ्राम्यते = घुमाया जाता है(सः)= वहआत्मानम् = आ[ने आपकोच = औरप्रेरितारम् = सबके प्रेरक परमात्मा कोपृथक = अलग-अलगमत्वा = जानकरतत: = उसके बादतेन = उस परमात्मा से जुष्ट = स्वीकृत होकर;अमृत्तत्त्वम् = अमृत तत्त्वम् कोएति = प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या जो सबके जीवन निर्वाह हेतु हैं और जो समस्त प्राणियों का आश्रय हैंऐसे इस जगत् रूप ब्रम्हचक्र में परमब्रम्ह परमात्मा द्वारा संचालित तथा परमात्मा के ही विराट शरीर रूप संसार चक्र में यह जीवात्मा (हँसो) अपने कर्मों के अनुसार उन परमात्मा द्वारा घुमाया जाता है। जब तक यह जीवात्मा (हँसो) इसके संचालक (परमात्मा) को जानकर उनका कृपा पात्र नहीं बन जाताअपने को उनका प्रिय नहीं बना लेतातब तक इस जीवात्मा का इस चक्र से छुटकारा नहीं हो सकता। जब यह जीवात्मा (हँसोअपने को व सबके प्रेरक परमात्मा को भली-भाँति पृथक-पृथक समझ लेता है कि उन्ही के घुमाने से मैं इस संसार चक्र में घूम रहा हूँ और उन्ही की कृपा से छूट सकता हूँतब यह उन परमेश्वर का प्रिय बनकर उनके द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है।(कठोपनिषद १/२/२३ और मुंडकोपनिषद ३/२/३ में भी इसी प्रकार का वर्णन है।) फिर तो वह अमृततत्त्वम् को प्राप्त हो जाता है। जन्म-मरण रूप संसार चक्र से सदा के लिए छूट जाता है। परमशान्ति एवं सनातन परमधाम को प्राप्त कर लेता है।
अतः अध्यात्मवेत्तागण को यह भी जान-समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार जीवात्मा (हँसो) को ही परमात्मा घोषित कर रहे हैं, उस जीवात्मा (हँसो) से तो माया श्रेष्ठ व बलवान होती है जो अव्यक्त या प्रकृति भी कहलाती है जिससे जीव समुदाय उसके वश में रहता है। इसको हटाना जीवात्मा के अधिकार की बात नहीं होती है। परमात्मा की अध्यक्षता में यही सृष्टि की उत्पत्ति, संचालन व संहार भी करती है।

मायां तु प्रकृतं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ४/१०)
व्याख्या—इस प्रकरण में जिसका माया नाम से वर्णन हुआ है, वह तो भगवान की शक्ति रूपा प्रकृति है और उस माया नाम से कहीं जाने वाली शक्तिरूपा प्रकृति का अधिपति परमब्रम्ह-परमात्मा है। इस प्रकार इन दोनों को अलग – अलग समझना चाहिए। उस परमेश्वर की शक्तिरूपा प्रकृति के ही अंगभूत कारण – कार्य समुदाय से यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो रहा है।

मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥
(गीता ९/१०)
हे अर्जुन ! मेरी अध्यक्षता और निर्देशन में यह मेरी माया चराचर सहित सब जगत् को रचती है और इस ऊपर कहे हुये कारण से ही यह संसार आवागमन रूप चक्र में घूमता है।

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ॥
(कठोपनिषद् १/३/१०)
व्याख्या:- इन्द्रियों से अर्थ (विषय) बलवान है। और विषयों से बलवान मन है। मन से भी बुद्धि बलवान है। अतः बुद्धि के द्वारा विचार करके मन को राग-द्वेष रहित बनाकर अपने वश में कर लेना चाहिए। एवं बुद्धि से भी आत्मा बलवान है।

महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः ।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गति: ॥
(कठोपनिषद् १/३/११)
व्याख्या :- उपनिषद् और गीता में इस अव्यक्त प्रकृति को कहीं भी मुक्ति देने में समर्थ नहीं माना है। अतः इन्द्रियों, मन और बुद्धि – इन सब पर आत्मा का अधिकार है, अतः वह स्वयं उनको वश में करके भगवान की ओर बढ़ सकता है। परन्तु उस आत्मा से भी बलवान एक और तत्त्व है जिसका नाम अव्यक्त है। कोई इसे प्रकृति और कोई इसे माया भी कहते हैं। इसी से सब जीव समुदाय मोहित होकर उसके वश में हो रहा है। इसको हटाना जीव के अधिकार की बात नहीं है। अतः इससे (माया से) भी बलवान जो इसके स्वामी परंपुरुष परमेश्वर हैं, जो बल-क्रिया और ज्ञान आदि सभी शक्तियों की अन्तिम अवधि और परम आधार है—उन्ही की शरण लेनी चाहिए। जब वे दया करके इस माया रूपी पर्दे को स्वयं हटा देंगे, तब उसी क्षण भगवान की प्राप्ति हो जाएगी।

ऐ अध्यात्मवेत्ताओं ! जो आप लोग शरीर में रहने वाले जीवात्मा (हँसो व ज्योति) को ही परमात्मा कहकर बता व दर्शा रहे हो, यह आप लोगों द्वारा धर्म की आड़ में समाज को एक जबरदस्त धोखा है क्योंकि वास्तव में परमात्मा किसी भी भूत प्राणी के हृदय में नहीं रहता है। विश्वास न हो तो श्री कृष्ण जी महाराज की वाणी गीता में देखें –

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥
(श्रीमद्भगवद् गीता ९/४)
हे अर्जुन ! मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह सब जगत् अव्यक्त से मूर्त रूप परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्प के आधार पर स्थित हैं, इसलिए वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभन्न च भूतस्थो ममात्मा भूत भावनः ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९/५)
और वे सब भूत मेरे में स्थित नहीं हैं, किन्तु मेरी योगमाया और मेरे प्रभाव को देख कि भूतों का आधार-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला मेरा आत्मा भी वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है।

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १५/१६)

हे अर्जुन ! इस संसार में नाशवान एवं अविनाशी ये दो प्रकार के पुरुष हैं । इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों  के शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है ।

उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत : ।
यो लोकत्रायमावृत्य बिभर्त्यव्यय परमेश्वर: ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १५/१७)
हे आत्मा वालों ! चेतन (आत्मा) कभी भी परमात्मा नहीं है। परमात्मा तो जड़ जगत् तथा चेतन आत्मा से भी परे एक उत्तम  पुरुष हैजो परमात्मा व पुरुषोत्तम नाम से कहा जाता है। परमतत्त्वम् वाले श्रीकृष्ण जी महाराज ने गीता में स्पष्ट कहा है कि –
तथा उन दोनों से(शरीर व जीवात्मा दोनों से) उत्तम  पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों को आवृत करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा ऐसे कहा गया है।  

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम: ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १५/१८)
क्योंकि 'मैं' नाशवान् जड़ वर्ग ; क्षर जगत् से तो सर्वथा अतीत हूँ ही, और अविनाशी जीव-आत्मा से भी उत्तम हूँइसलिए लोक में और वेद में भी 'पुरुषोत्तमनाम से प्रसिद्ध हूँ।

यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्व भावेन भारत ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १५/१९)
हे भारत ! इस प्रकार तत्त्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है।

अश्रद्धानाः पुरुषा: धर्मस्यास्य परंतप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवत्र्मनि ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९/३)

हे परंतप ! इस तत्त्वज्ञान रूप धर्म में श्रद्धा रहित पुरुष मेरे को न प्राप्त होकर मृत्यु रूप संसार चक्र में भ्रमण करते हैं।  

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