ऋग्वेदीय, यजुर्वेदीय, अथर्ववेदीय मन्त्र देखें

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ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्
अस्मिन देवां अधि विश्वेनिषेदुः।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति
य इत् तद् विदुस्ते इमे समासते।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ४/८)
(ऋग्वेद म॰१ सू॰१६४ मन्त्र ३९ तथा अथर्ववेद ९/१५/१८)


व्याख्या---परमब्रम्ह-परमेश्वर के जिस अविनाशी परम आकाश रूप परमधाम में समस्त देवगण अर्थात् उन परमात्मा के पार्षदगण उन परमेश्वर की सेवा करते हुये निवास करते हैं, वहीं समस्त वेद भी पार्षद के रूप में मूर्तिमान होकर भगवान् की सेवा करते हैं। जो मनुष्य उस परमधाम में रहने वाले परमब्रम्ह पुरुषोत्तम को नहीं जानता और इस रहस्य को भी नहीं जानता कि समस्त वेद उन परमात्मा की सेवा करने वाले उन्हीं के अंगभूत पार्षद हैं वह वेदों के द्वारा क्या प्रयोजन सिद्ध करेगा? अर्थात् कुछ सिद्ध नहीं करेगा। परन्तु जो मनुष्य उस परमात्मा को तत्त्वत: जान लेते है, वे तो उस परमधाम में ही सम्यक् प्रकार से (भली-भाँति) प्रविष्ट होकर सदा के लिए ही स्थित हो रहते हैं। 

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