परमब्रम्ह और ब्रम्हाण्ड

परमब्रम्ह और ब्रम्हाण्ड
‘’परमब्रम्ह या परमतत्त्वम् या गॉड या अलम्’’
जब कहीं कुछ भी नहीं था, परमब्रम्ह ही एक मात्र शब्द रूप में परम आकाश रूप परमधाम में रहते थे। उसे ही शब्द ब्रम्ह कहा जाता है। वह शब्द अन्य सामान्य शब्दों की तरह रहते हुये भी सामान्य शब्द नहीं है, क्योंकि उस शब्द का प्रयोग एकमात्र परमब्रम्ह-परमेश्वर या परमात्मा के लिए ही है तथा उसका यथार्थ प्रयोग भी जब परमब्रम्ह, परमात्मा का परम आकाश रूप परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण होता है तब ही उन्हीं के द्वारा होता है। अर्थात् उस शब्द की यर्थात् जानकारी देवता, ऋषि-महर्षि या योगी-यती सन्त-महात्मा आदि किसी को भी नहीं रहती है। जिस प्रकार श्री राम चन्द्र जी और श्री कृष्ण जी सामान्य मनुष्य के नाम-रूप आदि के समान रहते हुये भी सामान्य मनुष्य नहीं थे, बल्कि परमब्रम्ह-परमात्मा के पूर्णावतार थे। ठीक उसी प्रकार वह शब्द सामान्य शब्दों की तरह रहते हुये भी सामान्य शब्द नहीं होता है बल्कि परमधाम से परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान् परमपुरुष का भू-मण्डल पर जब-जब अवतरण या प्राकट्य होता है, तब-तब ही उस शब्द का ज्ञान यानी तत्त्वज्ञान भी प्रकट होता है।
जिस प्रकार मनुष्य शरीर तो संसार में बराबर (हर समय) रहता ही है, परन्तु श्री रामचन्द्र जी और श्री कृष्ण जी वाली शरीर अपने-अपने समयों में मात्र एक ही थी अर्थात् उन नाम-रूपों वाली शरीर उस समय भी बहुत रही है और आज भी बहुत है, परन्तु वे सभी लोग आ पूर्ण वह नहीं थे क्योंकि उन (श्री राम और श्री कृष्ण जी वाली शरीर) के साथ सदा सर्वदा परमब्रम्ह-परमात्मा रहता था, जो उनके समकालीन किसी भी अन्य देवता, ऋषि-महर्षि या योगी-यति साधक-सिद्ध सन्त-महात्मा गुरुजन-तथाकथित सद्गुरुजन आदि के साथ भी नहीं था। अन्य शरीर की तो बात ही कौन करे? ठीक उसी प्रकार प्रत्येक शब्द तो सद्ग्रन्थों में हर समय रहता ही है परन्तु परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान् का पूर्ण परिचय-पहचान कराने वाला शब्द-ब्रम्ह एक मात्र सृष्टि के आदि से पूर्व से तथा सृष्टि के अन्त के पश्चात् तक भी एक ही रहता है। जिस प्रकार श्री रामचन्द्र जी और श्री कृष्ण जी वाली शरीर मात्र को देखने से उनके परमात्मा रूप परमसत्ता की जानकारी तथा बोध नहीं होता था, इतना ही नहीं उनके साथ उनके आज्ञा और सेवा में हर समय तैयार रहने वाले लक्ष्मण, हनुमान, उद्धव और अर्जुन को भी परमात्मा के अवतरण वाली शरीर श्री राम जी और श्री कृष्ण जी से भवसागर से मुक्ति और अमरता की प्राप्ति, पापों से एवं कर्म-बन्धन से मुक्ति और परमात्मा की जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान करने के लिए ज्ञान लेना पड़ा था। ठीक उसी प्रकार वेद-उपनिषद्-रामायण-गीता-पुराण-बाइबिल-कुरान आदि सद्ग्रन्थों में उस शब्द को देखने से ही उसके परम रहस्य युक्त परमब्रम्ह-परमात्मा की जानकारी तथा जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं एवं आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-हँसो-ज्योति-शिव-नूर और सत्पुरुष रूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान् या परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् का एकत्व बोध नहीं हो सकता है।
इतना ही नहीं, समस्त सद्ग्रन्थों को करोड़ो वर्ष तक मनन-चिन्तन, निदिध्यासन आदि के साथ भी पठन-पाठन-अध्ययन-अध्यापन करते रहें, यहाँ तक कि योग-साधना-अध्यात्म की क्रियायें भी करोड़ो वर्षों तक करते रहे, तब भी न तो परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है और न मुक्ति-अमरता का साक्षात् बोध ही मिल सकता है। अर्थात् सारा अध्ययन-अध्यापन-स्वाध्याय और ध्यान-साधना, मुद्रा आदि भी करोड़ों वर्ष तक भी करते रहें, तब भी अवतारी पुरुष या सद्गुरु से परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् वाले शब्द-ब्रम्ह के द्वारा जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं एवं आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-हँसो-ज्योति-शिव-नूर और सत्पुरुष रूप परमात्मा-परमेश्वर परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान् का बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन व एकत्व बोध हुए बिना अथवा अवतारी पुरुष रूप सद्गुरु द्वारा परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् वाले शब्दब्रम्ह के परम रहस्य युक्त ज्ञान के माध्यम से परमतत्त्वम् से आत्मा तथा आत्मा से ज्योति रूपा शक्ति, शक्ति से क्रमशः आकाश-वायु-अग्नि-जल-थल और इनसे जड़ जगत् तत्पश्चात् जीव को उत्पन्न कर-कराकर अथवा परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् से सोsहँ तथा सोsहँ से ॐ को उत्पन्न या प्रकट कर-कराकर जनाते-दिखाते हुये पुनः भगवत्तत्त्वम् द्वारा ही जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं एवं आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-हँसो-ज्योति-शिव-नूर को आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा में विलय कराते हुये जानेंगे और देखेंगे नहीं अथवा परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् वाले शब्द-ब्रम्ह से ही सृष्टि के सम्पूर्ण मैं-मैं तू-तू एवं ध्वनि और प्रकाश (sound एंड light वैज्ञानिकों का) अनहद नाद बिन्दु, दिव्य ज्योति (योगियों-महात्माओं का) को उत्पन्न तथा परमब्रम्ह-परमात्मा के अवतार रूप सद्गुरु से तत्त्वज्ञान तथा विज्ञान (Science) द्वारा भी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता में ही विलय रूप होते हुये जब तक प्रत्यक्षतः बिना ध्यान-साधना एवं मुद्राओं के ही देखा और जाना नहीं जाएगा तब तक सम्पूर्ण पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन, मनन-चिंतन निदिध्यासन तथा ध्यान-साधना एवं मुद्राओं को करते हुये करोड़ो वर्ष बीत जायें, तब भी वेद-उपनिषद्-रामायण-गीता-पुराण-बाइबिल-कुरान आदि-आदि सद्ग्रन्थों का रहस्य समझ में नहीं आयेगा और न तो मुक्ति (पाप और भवसागर, आवागमन और कर्म-बन्धन से मुक्ति) ही मिल पायेगी और न अमरता का रहस्य या मूलतत्त्व ही समझ में आयेगा। अर्थात् आपका सारा परिश्रम व्यर्थ जायेगा। प्रमाण स्वरूप निम्नलिखित मंत्र देखें -------(कठोपनिषद् के प्रथम बल्ली में नचिकेता और यमराज के प्रकरण से)
सम्बन्ध--------नचिकेता का महत्वपूर्ण प्रश्न सुनकर यमराज ने मन-ही-मन उसकी प्रशंसा की। सोचा कि ऋषिकुमार बालक होने पर भी बड़ा प्रतिभाशाली है, कैसे गोपनीय विषय को जानना चाहता है; परन्तु आत्मतत्त्वम् उपयुक्त अधिकारी को ही बतलाना चाहिए। अनधिकारी के प्रति आत्मतत्त्वम् का उपदेश करना हानिकर होता है, अतएव पहले पात्र-परीक्षा की आवश्यकता है -------यों विचारकर यमराज ने इस तत्त्व की कठिनता का वर्णन करके नचिकेता को टालना चाहा और कहा------
देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा
न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः।
अन्यं वरं नचिकेता वृणीष्व
मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्।।
(कठोपनिषद् १/१/२१)
व्याख्या---नचिकेता ! यह आत्मतत्त्वम् अत्यन्त सूक्ष्म विषय है। इसका समझना सहज नहीं है। पहले देवताओं को भी इस विषय में संदेह हुआ था। उनमें भी बहुत विचार-विनिमय हुआ था; परंतु वे भी इसको जान नहीं पाये। अतएव तुम दूसरा वर माँग लो। मैं तुम्हें तीन वर देने का वचन दे चुका हूँ, अतएव तुम्हारा ऋणी हूँ; पर तुम इस वर के लिए, जैसे महाजन ऋणी को दबाता है वैसे मुझको मत दबाओ। इस आत्मतत्त्वम् विषयक वर को मुझे लौटा दो। इसको मेरे लिए छोड़ दो।
सम्बन्ध----नचिकेता आत्मतत्त्वम् की कठिनता की बात सुनकर तनिक भी घबराया नहीं, न उसका उत्साह ही  मंद हुआ; वरं उसने और भी दृढ़ता के साथ कहा--------
देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल
त्वं च मृत्यो यन्न सुविज्ञेयमात्थ।
वक्ता चास्य त्वादृ गन्यो न लभ्यो
नान्यो वरस्तुल्य एतस्य ।।
(कठोपनिषद् १/१/२२)
व्याख्या---हे मृत्यो ! आप जो यह कहते है कि पूर्वकाल में देवताओं ने भी जब इस विषय पर विचार-विनिमय किया था तथा वे भी इसे जान नहीं पाये थे और यह विषय सहज नहीं है, बड़ा ही सूक्ष्म है; तब यह तो सिद्ध ही है कि यह बड़े ही महत्व क विषय है और ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय को समझाने वाला आपके समान अनुभवी वक्ता मुझे ढूँढ़ने पर भी दूसरा कोई मिल नहीं सकता। आप कहते हैं इसे छोड़कर दूसरा वर माँग लो। परन्तु मैं तो समझता हूँ कि इसकी तुलना का दूसरा कोई वर है ही नहीं। अतएव कृपापूर्वक मुझे इसी का उपदेश कीजिये।। २२ ।। 
सम्बन्ध------विषय की कठिनता से नचिकेता नहीं घबराया, वह अपने निश्चय पर ज्यों-का-त्यों दृढ़ रहा। इस पर परीक्षा में वह उत्तीर्ण हो गया। अब यमराज दूसरी परीक्षा के रूप में उसके सामने विभिन्न प्रकार के लाभों को रखने की बात सोचकर उससे कहने लगे-------
शतायुष पुत्रपौत्रान् वृणीष्व
बहून् पशून् हस्तिहिरण्य मश्वान्।
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व
स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि।।
(कठोपनिषद् १/१/२३)
व्याख्या------नचिकेता ! तुम बड़े भोले हो, क्या करोगे इस वर को लेकर? तुम ग्रहण करो इन सुख की विशाल सामग्रियों को। इस सौ-सौ वर्ष जीने वाले पुत्र-पौत्रादि बड़े परिवार को माँग लो। गौ आदि बहुत से उपयोगी पशु, हाथी, सुवर्ण, घोड़े और विशाल भूमण्डल के महान् साम्राज्य को माँग लो और इन सबको भोगने के लिए जितने वर्षो तक जीने की इच्छा हो उतने ही वर्षो तक जीते रहो।।२३।।
एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं
वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च।
महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि
कामानां त्वा कामभाजं करोमि।।
(कठोपनिषद् १/१/२४)
व्याख्या---नचिकेता ! यदि तुम प्रचार धन-सम्पत्ति, दीर्घ जीवन के लिए उपयोगी सुख-सामग्रियाँ अथवा और भी जितने भोग मनुष्य भोग सकता है, उस सबको मिलाकर उस आत्मतत्त्वम् विषयक वर के समान समझते हो तो इन सबको माँग लो। तुम इस विशाल भूमि के सम्राट बन जाओ। मैं तुम्हें समस्त भोगों को इच्छानुसार भोगने वाला बनाये देता हूँ। इस प्रकार यहाँ यमराज ने आत्मतत्त्वम् का महत्व समझाते हुये नचिकेता को विशाल भोगों को देने को कहा।। २४ ।।
सम्बन्ध----इतने पर भी नचिकेता अपने निश्चय पर अटल रहा, तब स्वर्ग के दैवी भोगों को देते हुये यमराज ने कहा ------
ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके
सर्वान् कामाँश्छन्दत: प्रार्थयस्व।
इमा रामा: सरथा: सतूर्या
न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यै:।
आभिर्मत्प्रत्ताभि: परिचारयस्व
नचिकेता मरणं मानुप्राक्षी।।    (कठोपनिषद् १/१/२५)
व्याख्या---- नचिकेता ! जो जो भोग मृत्युलोक में दुर्लभ हैं, उन सबको तुम अपने इच्छानुसार माँग लो। ये रथों और विविध प्रकार के वाद्यों सहित जो स्वर्ग की सुन्दरी रमणियाँ हैं, ऐसी रमणियाँ मनुष्यों में कहीं नहीं मिल सकतीं। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि इनके लिए ललचाते रहते हैं। मैं इन सबको तुम्हें सहज ही दे रहा हूँ। तुम इन्हें ले जाओ और इनसे अपनी सेवा कराओ; परंतु नचिकेता ! आत्मतत्त्वम् विषयक प्रश्न मत पूछो।। २५ ।।
सम्बन्ध----यमराज शिष्य पर स्वाभाविक ही दया करने वाले महान् अनुभवी आचार्या हैं। इन्होंने अधिकारी परीक्षा के साथ ही इस प्रकार भय और एक के बाद एक उत्तम भोगों का लाभ दिखाकर, जैसे खूँटें को हिला-हिलाकर दृढ़ किया जाता है, वैसे ही नचिकेता के वैराग्य सम्पन्न निश्चय को और भी दृढ़ किया। पहले कठिनता का भय दिखाया, फिर इस लोक के एक-से-एक बढ़कर भोगों के चित्र उसके सामने रखे और अन्त में स्वर्ग लोक में भी उसका वैराग्य करा देने के लिए स्वर्ग के दैवी भोगों का चित्र उपस्थित किया और कहा कि इनको यदि तुम अपने आत्मतत्त्वम् सम्बन्धी वर के समान समझते हो तो इन्हें माँग लो। परंतु नचिकेता तो दृढ़ निश्चयी और सच्चा अधिकारी था। वह जानता था कि इस लोक और परलोक के बड़े-से-बड़े भोग-सुख की आत्मतत्त्वम् के ज्ञान के सुख के किसी क्षुद्रतम अंश के साथ भी तुलना नहीं की जा सकती। अतएव उसके अपने निश्चय का युक्ति पूर्वक समर्थन करते हुए पूर्ण वैराग्ययुक्त वचनों में यमराज से कहा------
श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत्
सर्वेन्द्रियाणाम् जरयन्ती तेज:।
अपि सर्व जीवितमल्पमेव
तवैव वाहास्तव नृत्यगीते।।
(कठोपनिषद् १/१। २६)
व्याख्या-----हे सबका अन्त करने वाले यमराज ! आपने जिन भोग्य वस्तुओं की महिमा के पुल बाँधे हैं, वे सभी क्षणभंगुर हैं। कल तक रहेंगी या नहीं, इसमे संदेह है। इनके संयोग से प्राप्त होने वाला सुख वास्तव में सुख ही नहीं है, वह तो दुख ही है (गीता ५/२२)। ये भोग्य वस्तुएं कोई लाभ तो देती ही नहीं, वरं मनुष्य की इन्द्रियों के तेज और धर्म को हरण कर लेती हैं। आपने जो दीर्घ जीवन देना चाहा है, वह भी अनन्तकाल की तुलना में अत्यन्त अल्प ही है। जब ब्रम्हा आदि देवताओं का जीवन भी अल्पकाल का है----एक दिन उन्हें भी मरना पड़ता है, तब औरों की बात ही क्या है। अतएव मैं यह सब नहीं चाहता। ये आपके रथ, हाथी, घोड़े, ये रमणियाँ और इनके नाच-गान आप अपने ही पास रखें।। २६ ।।
न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो
लपस्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत् त्वा।
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं
वरस्तु मे वरणीय: स एव।।
(कठोपनिषद् १/१/२७)      

व्याख्या—आप जानते ही हैं, धन से मनुष्य कभी तृप्त नहीं हो सकता। आग में घी-ईधन डालने से जैसे आग जोरों से भड़कती है, उसी प्रकार धन और भोगों की प्राप्ति से भोग-कामना का और भी विस्तार होता है। वहाँ तृप्ति कैसी। वहाँ तो दिन-रात अपूर्णता और अभाव की अग्नि में ही जलना पड़ता है। ऐसे दु:खमय धन और भोगों को कोई भी बुद्धिमान पुरुष नहीं मांग सकता। मुझे अपने जीवन निर्वाह के लिए जितने धन की आवश्यकता होगी, उतना तो आप के दर्शन से अपने आप प्राप्त हो जायेगा। रही दीर्घ जीवन की बात, सो जब तक मृत्यु के पद पर आपका शासन है, तब तक मुझे मरने का भी भय क्यों होने लगा। अतएव किसी भी दृष्टि से दूसरा वर माँगना उचित नहीं मालूम होता। इसलिये मेरा प्रार्थनीय तो वह आत्मतत्त्वम् विषयक वर ही है। मैं उसे लौटा नहीं सकता ।।२७।। 
सम्बन्ध----इस प्रकार भोगों की तुच्छता का वर्णन करके अब नचिकेता अपने वर का महत्त्व बतलाया हुआ उसी को प्रदान करने के लिए दृढ़ता पूर्वक निवेदन करता है----
अजीर्यताममृतानामुपेत्य
जीर्यन् मर्त्य: क्वध:स्थ: प्रजानन्।
अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदा-
नतिदीर्घे जीवते को रमेत।।
(कठोपनिषद् १/१/२८)
व्याख्या—हे यमराज ! आप ही बताइये-----भला, आप-सरीखे अजर-अमर महात्मा देवताओं का दुर्लभ एवं अमोघ संग प्राप्त करके मृत्यु लोक का जरा-मरणशील ऐसा कौन बुद्धिमान मनुष्य होगा जो स्त्रियों के सौंदर्य, क्रिड़ा और आमोद-प्रमोद में आसक्त होकर उनकी ओर दृष्टिपात करेगा और इस लोक में दीर्घकाल तक जीवित रहने में आनन्द मानेगा?।। २८ ।।
यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो
यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत् ।
योsयं वरो गूढमनुप्रविष्टो
नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ।।
(कठोपनिषद् १/१/२९)
व्याख्या--- नचिकेता कहता है---- हे यमराज ! जिस आत्मतत्त्वम् सम्बन्धी महान् ज्ञान के विषय में लोग यह शंका करते हैं कि मरने के बाद आत्मा का अस्तित्त्व रहता है या नहीं, उसके सम्बन्ध में निर्णयात्मक जो आपका अनुभूत ज्ञान हो, मुझे कृपा पूर्वक उसी का उपदेश कीजिये। यह आत्मतत्त्वम् सम्बन्धी वर अत्यंत गूढ़ है--- यह सत्य है; पर आपका शिष्य यह नचिकेता इसके अतिरिक्त दूसरा कोई वर नहीं चाहता ।। २९ ।।
सम्बन्ध----इस प्रकार दूसरे बल्ली में विषयासक्त, प्रत्यक्षवादी मूर्खो की निन्दा करके अब उस आत्मतत्त्वम् की और उसको जानने, समझने तथा वर्णन करने वाले पुरुषों की दुर्लभता का वर्णन करते हैं----
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्य:
श्रुण्वन्तोsपि बहवो यं न विद्यु:।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोsस्य लब्धा-
ssश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्ट: ।।
(कठोपनिषद् १/२/७)
व्याख्या—आत्मतत्त्वम् की दुर्लभता बतलाने के लिए यमराज ने कहा---नचिकेता ! आत्मतत्त्वम् कोई साधारण सी बात नहीं हैं। जगत् में अधिकांश मनुष्य तो ऐसे हैं जिनको आत्म कल्याण की चर्चा तक सुनने को नहीं मिलती। वे ऐसे वातावरण में रहते हैं कि जहाँ प्रातः जागने से लेकर रात्रि को सोने तक केवल विषय चर्चा ही हुआ करती है जिससे उसका मन आठों पहर विषय-चिन्तन में डूबा रहता है। उनके मनमें आत्मतत्त्वम् सुनने समझने की कभी कल्पना ही नहीं आती और भूले-भटके यदि ऐसा कोई प्रसंग आता है तो उन्हें विषय-सेवन से अवकाश नहीं मिलता। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सुनना-समझना उत्तम समझकर सुनते तो हैं, परन्तु उनके विषयाभिभूत मन में उसकी (आत्मतत्त्वम्) धारणा नहीं हो पाती या मंद बुद्धि के कारण वे समझ नहीं पाते। जो तीक्ष्ण बुद्धि पुरुष समझ लेते हैं, ऐसे आश्चर्यमय सत्पुरुष भी एकमेव एकमात्र एक ही होते हैं जो उस आत्मतत्त्वम् का यथार्थ रूप से वर्णन करने वाले समर्थ वक्ता हों एवं ऐसे पुरुष भी कोई बिरले ही होते हैं जिन्होंने आत्मतत्त्वम् को प्राप्त करके जीवन की सफलता सम्पन्न की हो, भली-भाँति समझाकर वर्णन करने वाले सफल-जीवन अनुभवी तत्त्व-दर्शी आचार्य के द्वारा उपदेश प्राप्त करके उसके अनुसार तत्त्वम् का साक्षात्कार करने वाले पुरुष भी संसार में कम ही होते हैं। अतः इसमें सर्वत्र ही दुर्लभता है।
न नरेणावरेण प्रोक्त एष
सुविज्ञेयो बहुधा चिंत्यमानः।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति
अणियान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात् ।।
(कठोपनिषद् १/२/८)
व्याख्या---- प्रकृति-पर्यन्त जो भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्व है, यह आत्मतत्त्वम् उससे भी सूक्ष्म है। यह इतना गहन है कि जब तक इसे यथार्थ रूप से समझाने वाले कोई सत्पुरुष नहीं मिलते, तब तक मनुष्य का इससे प्रवेश पाना अत्यंत ही कठिन है। अल्पज्ञ-साधारण ज्ञान वाले मनुष्य यदि इसे बतलाते हैं और उसके अनुसार कोई विविध प्रकार से इसके चिन्तन का अभ्यास करता-कराता है तो उसका तत्त्वज्ञान रूपी फल नहीं होता। आत्मतत्त्वम् समझ में नहीं आ सकता। अतः सुनना आवश्यक है, पर सुनना उनसे है जो इसे भली-भाँति जानने वाले आश्चर्यमय सत्पुरुष हों। तभी तर्क से सर्वथा अतीत इस गहन विषय की जानकारी हो सकती है।
इंद्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः॥ (कठोपनिषद् १/३/१०)
व्याख्या--- इन्द्रियों से अर्थ (विषय) बलवान् हैं। वे साधक की इन्द्रियों को बल पूर्वक अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं, अतः साधक को उचित है कि इन्द्रियों को विषयों से दूर रखें। विषयों से बलवान् मन है। यदि मन की विषयों में आसक्ति न रहे तो इंद्रियाँ और विषय – ये दोनों साधक की कुछ भी हानि नहीं कर सकते। मन से  भी बुद्धि बलवान् है, अतः बुद्धि के द्वारा विचार करके मन को राग-द्वेष रहित बनाकर अपने वश में कर लेना चाहिए। एवं बुद्धि से भी इन सबका स्वामी महान् आत्मा बलवान् है। उसकी आज्ञा मानने के लिए ये सभी बाध्य हैं। अतः मनुष्य को आत्मशक्ति का अनुभव करके उसके द्वारा बुद्धि आदि सबको नियन्त्रण में रखना चाहिए।। १० ।।
महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः।। (कठोपनिषद् १/३/११)
व्याख्या--- इस मन्त्र का तात्पर्य यह है कि इंद्रियाँ, मन और बुद्धि इन सब पर आत्मा का अधिकार है। अतः यह स्वयं उनको वश में करके भगवान् की ओर बढ़ सकता है परन्तु इस आत्मा से भी बलवान् एक ओर तत्त्व है जिसका नाम अव्यक्त (मूल प्रकृति) है कोई उसे प्रकृति और कोई माया भी कहते हैं। इसी से सब जीव समुदाय मोहित होकर उसके वश में हो रहा है। इसको हटाना जीव के अधिकार की बात नहीं है। इससे भी बलवान् इसके (माया के) स्वामी परमपुरुष परमेश्वर हैं, जो बल, क्रिया आदि समस्त शक्तियों की अन्तिम अवधि और परम आधार हैं। अतः उन्हीं की शरण लेनी चाहिए। जब वे दया करके इस माया रूपी पर्दे को स्वयं हटा लेगें (कृपा करके शरणागत को तत्त्वज्ञान देंगे) तब उसे परमात्मा (परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम्) की प्राप्ति हो जायेगी।। ११ ।।
यथैव विम्बं मृदयोपलिप्तः
तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम्।
तव्दाssत्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही
एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः
(श्वेताश्वतरोपनिषद् अ॰२ मं१४)
व्याख्या---- जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त होकर मलिन हुआ जो प्रकाशयुक्त रत्न है; वही भली भाँति धुल जाने पर चमकने लगता है, उसी प्रकार शरीरधारी आत्मतत्त्वम् को भली-भाँति प्रत्यक्ष करके अकेला कैवल्य अवस्था को प्राप्त होकर, सब प्रकार के दु:खों से रहित तथा कृतकृत (मुक्त) हो जाता है।
यदाssत्त्मतत्त्वेन तु ब्रम्हतत्त्वम्
दीपोपमेनेह युक्त: प्रपश्येत्।
अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैविशु;
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशै:।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् अ॰२ मं १५)
व्याख्या--- उसके बाद जब आत्मतत्त्वम् से युक्त ज्ञानी यहाँ दीपक से सदृश प्रकाश मय आत्मतत्त्वम् के द्वारा ब्रम्ह तत्त्व को भली-भाँति प्रत्यक्ष देख लेता है, उस समय वह अजन्मा, निश्चल, समस्त तत्त्वों से विशुद्ध आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परम देव परमात्मा को जानकर सब बंधनों से सदा के लिए छूट जाता है।
इस मन्त्र में आत्मतत्त्वम् से ब्रम्हतत्त्व को जानने की बात कह कर यह भाव दिखाया गया है कि परमात्मा का साक्षात्कार मन, बुद्धि, इन्द्रियों और योग-साधना-मुद्राओं आदि द्वारा भी नहीं हो सकता। इन सब की वहाँ पहुँच नहीं है। वे एक मात्र आत्मतत्त्वम् के द्वारा ही प्रत्यक्ष होते हैं। 

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