अवतारवादी धारणा व निर्देश

अवतारवादी धारणा व निर्देश
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
हे भारत जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।
परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् और तत्त्वज्ञान सृष्टि का सर्वोत्तम अस्तित्त्व और उन्हीं का परिचय-पहचान विधान है जो भगवदवतरण के साथ ही इस भू-मण्डल पर प्रकट होता है। तत्त्वज्ञान से न केवल ॐ की, बल्कि सोsहँ-हँसो-शिव-ज्योति तथा सम्पूर्ण जड़-चेतन रूप सृष्टि सहित ब्रम्हा-विष्णु-महेश आदि सम्पूर्ण के मैं-मैं तू-तू की उत्पत्ति व संचालन और विलय को भी यथार्थतः जाना व साक्षात् मुझसे देखा जाता है। आप भी समर्पण-शरणागत कर-होकर बात-चीत सहित गीता (१३/११-१२-१३) वाले ही विराट पुरुष को भी मुझसे साक्षात् देख सकते हैं।
------सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

परिचय या पहचान की विधि----
संसार में जब किसी व्यक्ति या वस्तु या शक्ति की उत्पत्ति या प्राकट्य होता है तो सबसे पहले उसे किसी न किसी शब्द से चिपकना या सम्बंधित होना ही पड़ता है। वह शब्द हो परिचय या पहचान का प्रथम कड़ी नाम कहलाता है। वैज्ञानिक भी जब किसी नये वस्तु की खोज (शोध) करते हैं तो सर्व प्रथम उसका नाम रखते हैं जिसके माध्यम से उसका परिचय या पहचान होता है। परिचय या पहचान के लिए तीन बातें अनिवार्य होती हैं-----नाम-रूप-स्थान। इन तीनों में से एक की भी अनुपस्थिति में पूर्णतः परिचय या पहचान का होना असम्भव है। परिचय या पहचान दो प्रकार से होता है। प्रथम शारीरिक या वस्तुगत और द्वितीय गुण-कर्म या सम्बन्ध तथा पद से।

१.    शारीरिक या वस्तुगत परिचय
शारीरिक परिचय से तात्पर्य माता-पिता या गुरु द्वारा शरीर-विशेष के रखे हुये नाम से है जिसके द्वारा समस्त सांसारिक क्रियाकलाप सम्पन्न होते हैं। जैसे श्रीरामचन्द्र जी नाम उस शरीर विशेष का है जो राजा दशरथ और माता कौशल्या जी से उत्पन्न होने वाली शरीर की जानकारी एवं सांसारिक क्रिया-कलापों को होने अथवा किए जाने के लिए माता-पिता तथा गुरु द्वारा रखा हुआ नाम ही श्रीरामचन्द्र जी है। ऐसे ही माता देवकी तथा पिता वासुदेव जी से उत्पन्न होने वाली शरीर विशेष का ही नाम श्रीकृष्ण जी है। इस प्रकार श्रीरामचन्द्र जी तथा श्री कृष्ण जी आदि नाम हुआ और इस नाम का संकेत जिधर हो अथवा अर्थवत् जो सामने आवे या जिसका बोध हो, वह रूप कहलाता है; और जहाँ उस व्यक्ति या वस्तु या शक्ति का स्थायी निवास होता है, जहाँ से वह समय विशेष पर कार्य विशेष हेतु जाया-आया करता है, वह उसका वास-स्थान कहलाता है। जैसे श्रीरामचन्द्र जी तथा श्रीकृष्ण जी का नाम हुआ धनुष-बाण तथा मुरली सहित आकृति-विशेष, शारीरिक रूप हुआ और अयोध्या, मथुरा-गोकुल-वृन्दावन स्थान हुआ। यह हुआ शारीरिक परिचय। इसी प्रकार सभी का परिचय होता है। चूंकि शरीर के माध्यम से ही सम्बन्ध गुण-कर्म होते अथवा किए जाते हैं। इसलिए यह शारीरिक परिचय, गुण कर्म अथवा सम्बन्ध से होने वाले परिचय के साथ तब तक कायम रहता है जब तक की वह रहता है!

2.गुण-कर्म अथवा सम्बन्ध-पद द्वारा परिचय-पहचान
शरीर प्रत्येक कार्यों का माध्यम होने के बाबजूद भी गुण, कर्म अथवा सम्बन्ध या पद से ही प्रतिष्ठित, मर्यादित तथा पूज्यनीय बनता अथवा होता है। शरीर का सम्बन्ध जिस-जिस श्रेणी के गुण तथा कर्म से होता है, यह उसी-उसी नाम-रूप-स्थान का होता चला जाता है और शारीरिक नाम-रूप-स्थान उस गुण-कर्म अथवा सम्बंधित (पद) से सम्बंधित नाम-रूप तथा स्थान के संयुक्त रूप से कार्य होने लगता है, और उसी के माध्यम से ही उस व्यक्ति का परिचय या पहचान होने लगता है। उदाहरणार्थ जिस शरीर के साथ काफी मात्रा में धन सम्पत्ति हो जाती है, उस शरीर का अपने (माता-पिता-गुरु द्वारा दिये हुये) नाम के अतिरिक्त एक ओर नाम धनवान या सेठ जी हो जाता है जिसके द्वारा जहाँ-जहाँ उनकी सम्पत्ति (धन) रहता है वहाँ-वहाँ और धनवानों में वह शरीर भी धनवान या सेठ जी कहला-कहला मर्यादित होता रहता है। परन्तु यह मर्यादा धन तक ही सीमित रहती है। यह कब कहाँ और किस शरीर के साथ कब तक रहेगी कुछ कहा नहीं जा सकता है।
सुख-शान्ति एवं स्थिरता-यश-प्रतिष्ठा की कसौटी पर कसने पर धन या धनवान का स्तर (श्रेणी) अन्य (जैसे पहलवान, विद्वान, पद, विचारक, दार्शनिक, साधक-सिद्ध-योगी तथा ज्ञानवान) के अपेक्षा बहुत ही महत्त्वहीन होता है क्योंकि धन से स्वयं को सुख और शान्ति हेतु बल, विद्या, विचार, दर्शन, साधना, सिद्धि, ज्ञान (मुक्ति-अमरता, परमपद, परमशान्ति, परमानन्द) आदि की प्राप्ति नहीं हो सकती है परन्तु इन सबों से धन (सम्पत्ति) की प्राप्ति बड़े आसानी से हो जाती है अर्थात् धनी व्यक्ति कभी भी पहलवानी, पदाधिकारी, विद्वत्ता, विचारक, दार्शनिक, योगी (साधक, ध्यानी), सिद्ध तथा ज्ञानी के आनन्द और शान्ति को जान व समझ भी नहीं सकता है, प्राप्त करना तो दूर रहा। धन के माध्यम से बलवान, अधिकारी, विद्वान, विचारक व दार्शनिक रखा जा सकता है परन्तु बना नहीं जा सकता है तथा सही साधक-योगी-सिद्ध और ज्ञानी बनना तो दूर है, धन से अपने अधीन रखा भी नहीं जा सकता है क्योंकि ये जीव (अहम्) एवं आत्मा (सः और ज्योति) ईश्वर-शिव और परमात्मा (परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम्-गॉड-अलम शब्दरूप खुदा-गॉड-भगवान्) से सम्बंधित होते हैं। जिसके सामने ब्रम्हाण्ड (दुनिया क्या देवलोक तक) की कोई वस्तु अथवा पद कुछ भी मायने-अर्थ-स्थान नहीं रखता है।
बलवान—चूंकि धन से बल श्रेष्ठ होता है। इसलिए धनवान से बलवान श्रेष्ठ है। धनवान धन से बलवान नहीं बन सकता हैं। परन्तु बलवान, बल से धनवान आसानी से बन सकता है। पहलवान या बलवान एक गुण वाचक नाम है। कसरत करना व लड़ना इसका रूप है तथा अखाड़ा इसका वास स्थान है। जैसे स्वयं के शारीरिक सुख और शान्ति की कसौटी से पहलवान चंदगी राम तथा पहलवान दारा सिंह की तुलना में कभी धनवानों भाई प्रेम जी अजीज जी- सुनील अंबानी (बिड़ला और टाटा आदि) की कोई तुलना ही नहीं है। वैसे तो अपने-अपने क्षेत्रों में सबकी ही अपनी-अपनी मर्यादाएं श्रेष्ठतर ही होती हैं। ये बातें या निर्णय गुणवत्ता के आधार पर किए गए हैं।
पदाधिकारी—बल एक प्रकार का शारीरिक एवं वस्तुगत शक्ति का संकेत है परन्तु पद से उसके सीमा क्षेत्र तथा विभाग के अन्तर्गत एक सामूहिक बल या शक्ति का संकेत मिलता है या होता है। इस प्रकार शारीरिक या व्यक्तिगत या वस्तुगत शक्ति सामर्थ्य से पदगत (पदाधिकारी) का शक्ति-सामर्थ्य श्रेष्ठ होता है। शारीरिक शक्ति-सामर्थ्य पदाधिकारी के पद सम्बन्धी शक्ति में विलय के रूप में हो जाता है। उदाहरणार्थ जैसे एस॰पी॰ (पुलिस अधीक्षक) तथा डी॰एम॰ (जिला-दण्डाधिकारी) एक पदाधिकारी हैं, न कि शरीर या वस्तु। जो शरीर इस पदाधिकारी से सम्बंधित होगा, वही एस॰पी॰ तथा डी॰एम॰ कहलायेगा। जो शरीर इन पदों से सम्बंधित हो जाती है। उस शरीर का नाम रूप तथा स्थान तो रहता ही है परंतु उसका महत्त्व पदाधिकारी (एस॰पी॰ तथा डी॰एम॰) की तुलना में बिल्कुल ही महत्त्वहीन हो जाता है। इस प्रकार भारत और उत्तरप्रदेश सरकार के जिला-स्तर के प्रतिनिधि या कर्मचारी के रूप में जिला-स्तर के प्रशासनिक शक्ति सामर्थ्य से युक्त एस॰पी॰ तथा डी॰एम॰ या शब्द या नाम होता है यह नाम शारीरिक नहीं होता है। यह गुणवाचक या सम्बन्ध (पद) सूचक नाम होता है क्योंकि इस शब्द या नाम लेने मात्र से ही शारीरिक परिचय का बोध न होकर सरकारी शक्ति सामर्थ्य से सम्बन्ध होने तथा आवश्यकतानुसार उत्तर-प्रदेश तथा भारत सरकार की समस्त शक्ति सामर्थ्य का बोध होने लगता है जिसके समक्ष व्यक्तिगत या शारीरिक नाम-रूप-स्थान का शक्ति सामर्थ्य बिल्कुल ही नहीं के बराबर तथा उसी पदाधिकारी में विलय के रूप में दिखाई देने लगता है। इस प्रकार एस॰पी॰ तथा डी॰एम॰ शब्द, नाम हुआ जिला प्रशासनिक व्यवस्था का इनके आदेश मात्र पर चलना ही इनका (एस॰पी॰ तथा डी॰एम॰ का) रूप हुआ और वह जिला जहाँ से जिला सम्बंधित पदाधिकारी होते है, वही इनका वास-स्थान होता है।

अतः जिला मुख्यालय का एस॰पी॰ तथा डी॰एम॰ कार्यालय में इनकी कुर्सी तथा रजिस्टर ही इनका रूप तथा कार्यालय ही इनका प्रधान स्थान होता है जिसके द्वारा इनका पूर्ण परिचय या पहचान, यथार्थ रूप में होता है। अतः कोई एम॰ पी॰ या डी॰ एम॰ किसी से आवश्यकतानुसार अपना पदगत् परिचय या पहचान परिचय-पत्र को सामने रखते एवं दिखाते व समझाते हुये, सरकारी स्वीकृति से युक्त मुहर को भी दिखाते हुये समझाता है, तब उस व्यक्ति (जिसको वह समझाना चाहता है) का यह कथन कि अरे! आप झूठ बोल रहे हैं, मैं तो आपको अच्छी तरह जानता हूँ कि आप अमुक नाम (शारीरिक) और अमुक गाँव के वासी हैं। मैं आपको एस॰ पी॰ तथा डी॰ एम॰ कदापि नहीं मानूगाँ। यदि आप हैं तो अपना एस॰ पी॰ तथा डी॰ एम॰ का रूप दिखलाये तब मानूगाँ, अन्यथा, नहीं मानूगाँ’—तो यह उसकी इतनी बड़ी अज्ञानता, जड़ता एवं मूढ़ता है कि जिसको ठीक-ठीक समझाना असम्भव ही होता है। यही बात साधक-योगी, महात्मा-संत-महापुरुष तथा तत्त्वज्ञानी सत्पुरुष या परमपुरुष से भी ये अज्ञानी-जढ़ एवं मूढ़ जन अपने मिथ्या-ज्ञानाभिमान के कारण करते हैं।
ऐसे लोगों के लिए ही तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि----

फूलै फलै न हिं बेंत जदपि सुधा बरसहिं जलद ।
मुरख हृदय न चेत जो गुरु मिलै विरंचि सम ॥

इसी प्रकार अन्य सन्तों का भी कथन है कि—
मूरख को न समझावते ज्ञान गांठ की जाय ।
कोयला उजला हो नहीं, सौ मन साबुन खाय ।।
पदाधिकारी के अन्तर्गत सम्राट-महाराजा-राजा, राष्ट्रपति तथा प्रधानमन्त्री का पद श्रेष्ठतम होता है परन्तु विद्वान का महत्व राजा से भी श्रेष्ठतर (बढ़कर) मान्यता प्राप्त है।

विद्वान----विद्वान शब्द आजकल भ्रामक हो गया है क्योंकि वेदान्त तथा गीता आदि अनेक सद्ग्रन्थों में विद्वान शब्द ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है परन्तु आज कल मिथ्याज्ञानाभिमानी (स्नातकोत्तर, पी॰ एच॰ डी॰---शोध-रिसर्च उपाधिवालों तथा कवियों और लेखकों आदि) मात्र के लिए ही विद्वान शब्द या नाम का प्रयोग होते हुये दिखलाई दे रहा है।

स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान सर्वत्र पुज्यते ।।‘’
“राजा की मान-मर्यादा आदर-सम्मान आदि मात्र अपने राज्य में ही होती है, परन्तु विद्वान की मान-मर्यादा आदर-सम्मान सर्वत्र ही होती है’’---इस प्रकार सद्ग्रन्थों के अन्तर्गत जिस ज्ञान यानी शारीरिक एवं सांसारिक  ज्ञान को मिथ्याज्ञानाभिमान में रहते हुये राजा एवं प्रशासकों को भी इसी विद्वता के माध्यम से प्रभावित किए रहते हैं। श्री करपात्री जी, श्री शंकराचार्यगण, श्री निरीक्षण पति मिश्र, मुरारी बापू, आशाराम, राम किंकर उपाध्याय, सुधान्शु, किरीट भाई आदि-आदि रावण तथा उसके विद्वत समाज के वर्तमान ज्वलंत उदाहरण हैं क्योंकि रावण भी अपने समय का सबसे बड़ा विद्वान एवं धर्म-सम्राट तथा प्रभावशाली महापुरुष था जिससे अपने मिथ्याज्ञानाभिमान एवं अपने प्रभावशाली होने के अभिमानवश भी परमब्रम्ह परमेश्वर (परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्) के अवतार रूप श्रीरामचन्द्र जी से भी टकराये बिना नहीं माना।
ठीक उसी प्रकार आज भी ये उपरोक्त विद्वान धर्म-सम्राट (बनावटी) लोग भी टकराये बिना नहीं मान रहे हैं। हम लोगों के बार-बार कहने पर भी हमारा और आप लोगों का कोई टकराव ही नहीं है। यदि आप लोगों को टकराना ही है तो शारीरिक बल एवं प्रभाव के द्वारा न टकराकर शान्ति मय ढ़ंग से वेद-उपनिषद्, रामायण-गीता-पुराण, बाइबिल-कुरान आदि के प्रमाणिकता के आधार पर ज्ञान से ज्ञान द्वारा टकराकर सत्य-ज्ञान को समाज में यथार्थ रूप में रखा जाय, परन्तु ये बातें इन्हें नहीं सूझती हैं। परमब्रम्ह परमेश्वर ही जाने कि इन लोगों की क्या दशा होगी?
मुझे तो अंतिम सिरे तक शान्तिमय ढ़ंग से तत्त्वज्ञान से ही कार्य करना है, क्योंकि इसके सिवाय मेरा कोई न तो आधार है और न ही तत्त्वज्ञान से श्रेष्ठ कुछ-कोई है जिसकी आवश्यकता ही हो। यहाँ मैं और मेरा से तात्पर्य सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्, श्रीहरि द्वार आश्रम, रानीपुर मोड़ रेलवे क्रासिंग के समीप ही, हरिद्वार (दूरभाष:: ०१३३४—२२४५८०) वाले सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस वाली शरीर से जनाए-दिखाए व मिलाए जाने तथा पहचान कराए जाने वाले परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा से है; मात्र सदानन्द वाले शरीर से तथा शरीर के लिए नहीं अपितु तत्त्वज्ञान द्वारा प्राप्त भगवान् के लिए है। इस में थोड़ा भी संदेह नहीं करना या होना चाहिए क्योंकि यह सत्प्रमाणित परमसत्य बात है।
विद्वत् बंधुओं को थोड़ा भी विचार अवश्य करना चाहिए कि जिन सद्दग्रन्थों को पढ़-पढ़ कर ये लोग विद्वान होते हैं, या बनते है। वे सभी सद्दग्रंथ ही परमतत्त्वम् रूप परमात्मा या तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु या अवतारी का जीवन चरित्र तथा उपदेश और हँसो ज्योति यानी आत्मा वाले योगी महात्मा तथा ऋषि-महर्षियो के खोज (शोध-प्रबन्ध) के अतिरिक्त कुछ हैं ही नहीं। मात्र इन्हीं दोनों पर समस्त सद्ग्रन्थ आधारित हैं। चाहे वह रामायण, गीता हो या पुराण; बाइबिल हो या कुरान। इन्हीं दोनों बातों----तत्त्वज्ञान दाता नूर-सोल-डिवाइन लाईट-दिव्य ज्योति रूप शिव या परमतत्त्वम् रूप परमात्मा वाली शरीर का जीवन चरित्र और हँसो ज्योति नाम-रूपी आत्मा वाली शरीर का जीव-आत्मा मिलन सम्बन्धी खोज या शोध-प्रबन्ध पर ही आधारित है। वैसे तो सभी सद्ग्रन्थ ही सम्पूर्ण ज्ञान वाले ही हैं किसी में वर्णन संकेत में है तो किसी में विस्तृतता में।
इस प्रकार इन विद्वत् बंधुओं को चाहिए कि जिस तत्त्वज्ञानदाता और योग-साधना सिखाने-कराने वालों के जीवन चरित्र तथा खोज या शोध प्रबन्ध पर ये लोग विद्वता, शास्त्री, रामायणी, मानस कोकिल, मानसमर्मज्ञ तथा वेदांती आदि उपाधियाँ प्राप्त करते हैं। वर्तमान में उनसे बजाय टकराने या संघर्ष करने के, उनसे विनम्र भाव से श्रद्धालु एवं जिज्ञासु भाव से तत्त्वज्ञानदाता के शरण में जा कर भगवत्तत्त्वरूप परमात्मा को जानना, देखना, तथा बात-चीत करते हुये परिचय-पहचान प्राप्त करना चाहिए। तब सद्ग्रन्थों को देखना चाहिए क्योंकि परमतत्त्वम् को जाने बिना सद्ग्रंथ वैसे ही हैं जैसे अन्धे व्यक्तियों द्वारा दर्पण देखा जाना ।

प्रज्ञाहीनस्य पठनं यथान्धस्य दर्पणम् ।
अतः प्रज्ञावतां शास्त्र तत्त्वज्ञानस्य लक्षणम् ॥
(गरुड़ पुराण १६/८२)
ज्ञान हीन पुरुष का पढ़ना उसी प्रकार है जिस प्रकार कि अन्धों का दर्पण देखना है। इस प्रकार ज्ञान से युक्त सद्ग्रन्थ को तत्त्वज्ञान का लक्षण जानना चाहिए।

शब्द ब्रम्हणि निष्णातो न निष्णायात् परे यदि ।
श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः ॥
(श्रीमद् भागवद महापुराण ११/११/१८)
प्यारे उद्धव ! जो पुरुष वेदों का तो परगामी विद्वान हो परन्तु परमब्रम्ह के ज्ञान से शून्य हो, उसके परिश्रम का कोई फल नहीं है। वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूध के गाय पालने वाला।

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्
अस्मिन देवां अधि विश्वेनिषेदुः।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति
य इत् तद् विदुस्ते इमे समासते।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ४/८)
(ऋग्वेद म॰१ सू॰१६४ मन्त्र ३९ तथा अथर्ववेद ९/१५/१८)


व्याख्या---परमब्रम्ह-परमेश्वर के जिस अविनाशी परम आकाश रूप परमधाम में समस्त देवगण अर्थात् उन परमात्मा के पार्षदगण उन परमेश्वर की सेवा करते हुये निवास करते हैंवहीं समस्त वेद भी पार्षद के रूप में मूर्तिमान होकर भगवान् की सेवा करते हैं। जो मनुष्य उस परमधाम में रहने वाले परमब्रम्ह पुरुषोत्तम को नहीं जानता और इस रहस्य को भी नहीं जानता कि समस्त वेद उन परमात्मा की सेवा करने वाले उन्हीं के अंगभूत पार्षद हैं वह वेदों के द्वारा क्या प्रयोजन सिद्ध करेगाअर्थात् कुछ सिद्ध नहीं करेगा। परन्तु जो मनुष्य उस परमात्मा को ‘तत्त्वत: जान लेते हैवे तो उस परमधाम में ही सम्यक् प्रकार से (भली-भाँति) प्रविष्ट होकर सदा के लिए ही स्थित हो रहते हैं। 


अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।
विज्ञातेsपिपरेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।।
(विवेक चूड़ामणि---६१)
परमतत्त्वम् को यदि न जाना तो शास्त्रायध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है (क्योंकि कुछ समझ में ही नहीं आ सकता) और यदि परमतत्त्वम् को जान लिया तो भी शास्त्र अध्यन निष्फल (अनावश्यक) ही है क्योंकि परमतत्त्वम् की प्राप्ति हो जाने पर शास्त्राध्ययन की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।

वर्तमान समय के विद्वत बन्धु लोग जो मात्र विश्वविद्यालयों की उपाधियाँ जो कि किसी भी वस्तु या विषय की मात्र बाहरी जानकारी ही होती हैं, प्राप्त किए रहते हैं। इसलिए पुस्तकीय या ग्रंथीय जानकारी वाले विद्वत बंधुओं से विचारक या दार्शनिक का स्तर (श्रेणी) उच्च होता है। अतः विद्वत बंधुओं को विचारक और दार्शनिक बनने का प्रयत्न करना चाहिए।
        
विचारक और दार्शनिक---- जब किसी विषय-वस्तु की बाह्य जानकारियाँ पूरी हो जाती हैं यानी जब प्राप्ति कर ली जाती है, तब उस विषय की सूक्ष्म जानकारी करने की बात की आवश्यकता पड़ने लगती है। एम॰ ए॰ (स्नातकोत्तर) तक की उपाधियाँ प्राप्त करने में तो किताबो व शास्त्रों की प्रधानता थी परंतु विचार एवं दर्शन में किसी ग्रन्थ का सहारा नहीं मिलता है। इसमें तो इन्द्रियों की भी कोई खास (मुख्य) आवश्यकता नहीं पड़ती है क्योंकि किसी विषय-वस्तु की सूक्ष्म जानकारी प्राप्त करने के लिए स्वयं को भी सूक्ष्म बनना पड़ता है। विचार से दर्शन तक पहुँचने में चार श्रेणियों से गुजरना पड़ता है जैसे----Thinking-विचार-प्रक्रिया में, Thought-विचार (ठहराव या उपलब्धि में) Thesis-विचार-लिपिबद्ध में, Philosophy-दर्शन-सिद्धान्त।
जब किसी विषय पर शोध किया जाता है तो उस विषय पर सबसे पहले Thinking----विचार करना पड़ता है। बार-बार विचार (खोज) करते-करते जब विचारक किसी नयी खोज या निश्चित विचार पर पहुँचता है और उस विषय से सम्बंधित दर्शनिकों के विचार पर पहुँचता है और उस विषय से सम्बंधित दर्शनिकों के विचारों से भिन्न एक नया विचार स्पष्टतः जानकारी प्राप्त हो जाती है; तब उसे विचार (Thought) कहा जाता है और वह व्यक्ति जिसने इस नये खोज या विचार को दिया है उसे विचारक (Thinker) कहा जाता है।
विचारक विचार करते हुये और आगे बढ़ने के बजाय पीछे पुनः शिक्षा जगत् में वापस लौट आता है। जब उसे अपने नये विचार नये खोज (शोध) पर काफी प्रसन्नता होती है और उसमें नये खोज सम्बन्धी एक अहंकार कार्ये करने लगता है जिसके कारण उस विचारक के अंदर यह भाव उत्पन्न होने लगता है कि अब उस विषय में मैं सबसे बड़ा जानकार हो गया।  
इस कारण उसका विकास बजाय आगे बढने के पीछे वापस लौट कर लिपिबद्ध होकर वह नया विचार (Thesis) कहलाता है। वही शोध-प्रबन्ध भी कहलाता है और और वह विचार (Thesis) तब-तक विचार (Thesis) ही रहता है जब तक कि उसे उस विचारक (Thinker) का प्रवक्ता (Head) उस विचार (Thesis) को मान्यता देने हेतु स्वीकार नहीं कर लेता। उसे स्वीकार कर लेते ही वह विचार (Thesis) दर्शन (Philosophy) का रूप ले लेता है अर्थात् अब वह विचार के स्थान पर दर्शन कहलाने लगता है। साथ ही वह विचारक भी अब विचारक नहीं, दार्शनिक कहलाने लगता है।
विश्व के समस्त विश्वविद्यालयों की यह अन्तिम उपाधि है। इसके आगे किसी भी प्रकार की उपाधि, विश्व का कोई विश्वविद्यालय नहीं दे रहा है और न दे सकता है। इस प्रकार शारीरिक परिचय या पहचान के साथ ही-साथ साथ गुण कर्म से सम्बंधित परिचय भी शरीर के साथ ही युक्त हो जाता है। इसमें दार्शनिक, नाम’, हुआ, इसका दर्शन की उपाधि रूप हुआ और जिस विश्वविद्यालय से उपाधि प्राप्त हुई है वह उसका वास स्थान हुआ।
चूँकि विचार मात्र जीव के कार्य करने का माध्यम होता है। इस प्रकार इसकी अन्तिम पहुँच जीव तक ही सीमित होती है। ये लोग (दार्शनिक) अपने से श्रेष्ठ जानकार किसी को नहीं मानते हैं परन्तु आत्मा वाले साधक-योगी-सिद्ध-सन्त-महात्मा के सामने पड़ते ही इन लोगों की सारी जानकारी फीकी (महत्त्वहीन) दिखाई देने लगती है जिससे ये लोग स्वतः ही आत्मा वालों को श्रेष्ठ स्वीकार करते हैं परन्तु इसमें भी जो जढ़ी-मूढ़ या अहंकारी होता है, वह नहीं स्वीकार करता है वास्तविकता तो यह है कि यदि स्वध्यायी इनके सामने पड़ जाय तो ये लोग उसके श्रेष्ठत्त्व को भी तुरन्त स्वीकार करने में थोड़ा भी नहीं हिचकते। यानी इनसे हर प्रकार से श्रेष्ठ तो स्वध्यायी ही होता है—आत्मा वाला आध्यात्मिक तो होता ही है परमात्मा वाले के समक्ष तो इनकी अपनी मर्यादा ही समाप्त दिखती है। उदाहरण स्वरूप श्री सनत्कुमार तथा नारद जी का प्रसंग देखें:--
 
सनत्कुमारजी द्वारा नारद को उपदेश 
(छान्दोग्योपनिषद् से)
एक बार नारद जी ने सनत्कुमार जी के पास जाकर कहा----हे भगवान् ! मुझे उपदेश कीजिये। सनत्कुमार जी ने कहा----तुम जो जानते हो उसे बतलाओ तो मैं तुमको उससे आगे का ज्ञान कहूँगा।

ऋग्वेद भगवोध्येमि यजुर्वेद सामवेदमाथर्वणम् चतुर्थमितिहास
पुराणम् पञ्चमम् वेदनां वेदं पित्र राशिं दैवं निधिम्
वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्या ब्रम्हविद्यां भूतविद्या क्षत्र विद्यां
नक्षत्रविद्यां सर्पदेव जनविद्यामेतद्भगवाsध्येमि।
(छान्दोग्योपनिषद् ७/१/२)
हे भगवन् ! मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, वेदों का वेद, श्राद्ध कल्प, गणित, उत्पातविद्या, निधि-शास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र निरुक्त, वेद विद्या, देवविद्या, ब्रम्हविद्या, भूतविद्या, धनुर्वेद, ज्योतिष, सर्पदेवजनविद्या, देवजनविद्या इन सब को जानता हूँ।

सोsहँ भगवे मन्त्रविदेवास्मि नात्मविच्छुत ह्येव भगवद्दृश्येभ्यस्त—रति
शोकमात्मविदित सो { हँ भगवः शोचामि तं मा भगवाञ्छोकस्य पारं
तारयत्वितित हो वाचद्वै किंचैदध्यगीष्ठा नामैवैतत्।
(छान्दोग्योपनिषद् ७/१/३)
हे भगवन् ! मैं कर्मवेत्ता हूँ। आत्मा के सम्बन्ध में नहीं जानता। पर मैंने आप जैसे महाज्ञानियों से सुना है कि आत्म ज्ञानी मन के परिताप को पार कर लेता है। मैं नारद आत्मज्ञान के अभाव में शोक करता हूँ। हे भगवन् ! मुझे उस शोक सागर से पार कीजिये। श्री सनत्कुमार जी ने कहा-----तुम जो कुछ जानते हो वह सब मात्र नाम ही है।
इस प्रकार श्री नारद जी और श्री सनत्कुमार जी के इस प्रकरण से यह स्पष्ट प्रमाणित हो रहा है कि विद्वान, विचारक या दार्शनिक या करपात्री जी, श्री शंकराचार्यगण, श्री निरीक्षण पति मिश्र जी, मुरारी बापू, आशाराम, सुधांशु, किरीट भाई, चिन्मयानन्द, तेजोमयानन्द आदि समस्त मात्र शास्त्र-ज्ञाताओं, शास्त्री, रामायणी, वेदान्ती आदि से आत्मा वाले----साधक-योगी-महात्मा आदि श्रेष्ठ हैं क्योंकि अब तक ही नारद जी से श्रेष्ठ विद्वान्, विचारक, दार्शनिक आदि कोई नहीं हुआ है और न है फिर भी नारद जी ने आत्मा वालों को श्रेष्ठ स्वीकार किया है। इसलिए वर्तमान में भी स्वीकार करना चाहिए। यही मेरा भी निर्देश या राय-परामर्श है। अभी तो यह आत्मा के स्वीकारोक्ति की बात है। हम सन्त ज्ञानेश्वर तो आत्मा-ईश्वर-ज्योति रूप शिव के भी पितारूप परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड भगवान् को जनाने-देखने-पहचानने की बात कर रहे हैं।

यहाँ पर यह बात जान लेना भी अनिवार्य है कि विचार (Thought) तक तो उर्ध्वमुखी होता है जो अधोमुखी होकर ही विचार (Thesis) से होता हुआ दर्शन (Philosophy) से गुजरता हुआ शारीरिक ही श्रेणी का दार्शनिक बनाता है मगर विचार (Thought) गिरने के बजाय उत्तरोत्तर उर्ध्वमुखी ही बना रहता, तब यह और ही ऊपर उठकर शरीर भाव से जीव (अहं ब्रम्हास्मि) में होकर स्वाध्यायी कहलाने लगते जो दार्शनिक से भी बहुत उच्चतर-श्रेष्ठतर महत्ता-मर्यादा वाला होता है। आप भी हो जाते फिर तो दार्शनिक की तरह शारीरिक मात्र---नौकरी खोजने-पाने-करने वाले पेट-परिवार वाले भोगी नहीं रह जाते। आनन्दानुभूति वाले स्वाध्यायी हो जाते; जहाँ नौकरी चाकरी-व्यापार वगैरह की-परिवार की भी आवश्यकता ही नहीं रह जाती।  

आत्मा-ईश्वर (पतनोन्मुखी सोsहँ, भ्रामक शिवोsहँ या उर्ध्वमुखी हँसो-यथार्थतः सः और ज्योति रूप शिव-शक्ति वाले) साधक, सिद्ध, योगी तथाकथित महात्मा आदि
शंकर जी, ब्रम्हा जी, नारद जी, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार जी, मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, वशिष्ठ, अंगी, अथर्वा, याज्ञवल्क्य, ऋभु, ऋषभदेव, निदाघ, जाबालि, कवि जी, पिप्लादि, हरि जी, सुबुद्ध जी, लोमश जी, बाल्मीकी जी, चमस जी, करभाजन, पराशर, श्री व्यास जी, दुर्वासा, अष्टावक्र, दत्तात्रेय जी, शौनक जी, शुकदेव जी, महावीर, मच्छेन्द्रनाथ, गोरखनाथ, मूसा, ईशु, यूहन्ना, आद्यशंकराचार्य जी, पातञ्जलि ऋषि, नानक, कबीर, तुलसीदास जी, रामानन्द जी, रविदास, मीरा, दादू, पल्टू, तुलसी साहब, दरिया साहब, श्री रामकृष्ण जी परमहंस, स्वामी विवेकानन्द जी, स्वामी रामतीर्थ, स्वरूपानन्द जी, योगानन्द जी, श्री ब्रम्हानन्द जी, श्री हंस जी, श्री राधा स्वामी, श्री मुहम्मद साहब जी, माँ आनन्दमयी जी, महर्षि मेंही जी, महर्षि महेश योगी, कृपाल दास जी, श्री बालयोगेश्वर जी, सतपाल जी, सनम्योंग मून (दक्षिण कोरिया) मुक्तानंद जी आदि आदि साधारण से लेकर उच्चतम कोटि के सिद्ध योगी-महात्मा आदि जितने भी ध्यान-अजपा-जाप (सोsहं-हंसो) और ज्योति वाले हैं, सब के सब इसी आत्मा वाले श्रेणी में ही आते हैं, आएँगे भी क्योंकि इन लोगों की समस्त जानकारियाँ प्राण-आत्मा तक ही हैं। आत्मा से आगे ये लोग बिल्कुल ही कुछ नहीं जानते हैं। आत्मा कैसे उत्पन्न होती है? कहाँ से आती है? किस प्रकार जीव बन जाती है? पुनः जीव किस प्रकार आत्मा बनता है? और आत्मा किस प्रकार परमात्मा से मिलता है तथा उसमें विलय करता है?’ जीव क्या है ? जीव कैसा होता है? जीव का दर्शन-आत्मा से अलग कैसे और कैसा होता है आदि आदि यह भी इन लोगों को मालूम नहीं रहता है।
जब सांसरिकता से ऊबकर या साधु-महात्माओं के प्रेरणा से जब साधना कराने वाले योगी गुरु जी लोगों से साधक साधना करना जानकर, उस साधना (श्वाँस-प्रश्वाँस से पतनोन्मुखी सोsहं-उर्ध्वमुखी हंसो और दिव्य दृष्टि से ज्योति दर्शन, अनहद-नाद तथा खेंचरी) आदि को करने लगता है तो एक प्रकार का आनन्द और शान्ति की अनुभूति होने लगती है और साधक व्यक्तियों की रुचि बढ़ने लगती है।
इस प्रकार साधक साधना करते-करते कुछ अचानक समयानुसार घटनाचक्रों में आश्चर्यजनक लाभ भी हो जया करता है जिससे आकर्षण और ही बढ़ता जाता है। साथ ही एक बात यह भी जान पड़ती है कि एक साथ हजारों योगी (साधना कराने वाले) तथाकथित महात्मा रहते हैं। थोड़ा-बहुत अन्तर कर-कराकर सब साधना ही कराते हैं। कोई ऐसा योग-अध्यात्म वाला महात्मा नहीं हुआ है और न है जो कि किसी न किसी प्रकार की साधना न करता व कराता हो तथा साधना की महिमा न गाता हो ।
चूँकि योगी-महात्मा हर समय ही एक साथ ही बहुतायत संख्या में रहते आये हैं और आज भी हैं, परन्तु इन अहंकारी व अभिमानियों की क्या बातें की जाय ? क्योंकि एक तरफ तो ये सब देखते हैं कि हजारों योगी-महात्मा वर्तमान में जीव और आत्मा (सोsहं-हंसो और ज्योति) से सम्बंधित थोड़ा-बहुत अन्तर करके सब साधना ही बता व करा रहे हैं फिर भी अपने-अपने अनुयायियों में सब यही घोषित करते हैं कि यही परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) तथा तत्त्वज्ञान है और यह मैं ही दे रहा हूँ। कोई और नहीं दे सकता है और यह सोsहं-हंस: ही परमात्मा का नाम तथा यह ज्योति परम प्रकाश, डिवाइन लाइट, नूर चाँदना आदि ही परमात्मा का रूप है। मात्र पतनोन्मुखी सोsहं को ही उर्ध्वमुखी हंसो को भी नहीं; यानि इन्हे यह भी मालूम नहीं कि सोsहं जीव है कि आत्मा-ईश्वर-शिव है कि परमात्मा-परमेश्वर-भगवान है? कुछ भी मालूम नहीं होता। सोsहँ-हँसो में मूलतः अन्तर क्या होता है यह भी मालूम नहीं। यही आत्मा है और आत्मा ही परमात्मा है। साथ ही साधना को ही तत्त्वज्ञान तथा अपने को ही तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु या पूर्णगुरु भी घोषित कर व करा लेते हैं क्योंकि शास्त्रों में योगी महात्माओं ने भी ऐसा ही किया कराया है। उसी के देखा देखी ये लोग भी वैसा ही करने लगते हैं।
मूढ़, जढ़, अनुयायीगण पायी हुई साधना को, बजाय कसने-जाँचने के, उसी साधना को तत्त्वज्ञान मानकर उन्ही गुरु जी महाराज में ऐसे चिपक जाते हैं कि भगवान या परमात्मा, खुदा-गॉड सर्वोच्च शक्ति-सत्ता या परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) को खोजने या पाने की जिज्ञासा ही ख़त्म कर लेते हैं। उसी योगी-महात्मा तथा (सोsहँ-हँसो और ज्योति) आत्मा में ही चिपक कर मानव योनि के लक्ष्य मुक्ति व अमरता, भवसागर व पापों से मुक्ति आदि से वंचित रह कर पुनः चौरासी लाख का चक्कर काटने लगते हैं। जन्मत-मरत दुःसह दुख होइ से गुजरते रहते हैं।
आदिकाल से आज तक के सभी योगी-महात्मा गण सभी साधना-ध्यान आदि को कराने वाले ही हैं फिर भी अपने को पूर्णगुरु, सद्गुरु, तत्त्वज्ञानदाता गुरु तथा अवतारी भी घोषित कर-करा रहे हैं। अपने द्वारा देय साधना को ही तत्त्वज्ञान घोषित कर रहे हैं जो इन लोगों द्वारा समाज को भ्रामक प्रचार रूप धोखा दिया जा रहा है, जो नहीं दिया जाना चाहिए।
समाज को जब योगी-महात्मा ही भ्रामक प्रचार रूप धोखा देना शुरू कर देंगे, तब आखिर उस समाज के सन्मार्ग हेतु सही दिशा-निर्देश या सच्चा सदुपदेश कौन करेगा? अर्थात् कोई नहीं कर पाएगा। जिसका परिणाम यह होगा कि प्रकृति बिगड़ेगी, और प्रलयकारी स्थिति उत्पन्न होगी। चारों तरफ हा-हाकार मचेगा। समाज तहस नहस होने लगेगा। प्रकृति अपने पति रूप परमतत्त्वम् रूप परमात्मा से कहती है कि हमसे उत्पन्न सृष्टि को हमारे अधीन रहने वाला मानव (वैज्ञानिक) ही आप के अस्तित्व तथा हमारी सृष्टि-मानव को ही समाप्त समाप्त करने पर आमादा (तैयार) हो गया है। साथ ही आप के प्रतिनिधि ही जो आप तथा हमारे संयोग से उत्पन्न हुये हैं तथा स्थित भी हैं। आज वही आपका बनावटी रूप लेकर अर्थात् अवतारी या भगवान् रूप मेरा पति (स्वामी) बनना चाहते हैं।
तब परमतत्त्वम् रूपी परमात्मा, खुदा-गॉड या सर्वोच्च शक्ति रूप शब्द ब्रम्ह का अपने परम आकाश रूप परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण होता है। जिनके द्वारा श्री बाल योगेश्वर जी, श्री साईं बाबा, सतपाल आदि सहित समस्त बनावटी अवतारी या भगवान् के मिथ्याज्ञानाभिमान को तत्त्वज्ञान रूप सत्य-ज्ञान द्वारा काटकर पुनः परमतत्त्वम् के ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान को, जो यथार्थतः सत्य सनातन धर्म है, को स्थापित करते हैं। परमात्मा (धर्म) तथा प्रकृति के अस्तित्त्व को मिटाने (समाप्त करने) जैसे कार्यों में लगे हुये दुष्ट-अत्याचारियों को सुधरने का अवसर देते हुये नहीं सुधरने पर समाप्त कर-कराकर तथा सज्जन, सदाचारी सत्पुरुषों का राज्य स्थापित कर, समाज में दोष रहित सत्य प्रधान मुक्ति और अमरता से युक्त सर्वोत्तम जीवन विधान वाला अमन-चैन (शांति और आनन्द) का जीवन स्थापित कर पुनः इस भू-मण्डल से परमधाम को वापस चले जाते हैं।
श्री साईं बाबा को चाहिए कि मात्र चमत्कार से ही अवतार या भगवान् बनना होता तो विश्व प्रसिद्ध (जादूगर श्री पी॰ सी॰ सरकार भी अवतारी या भगवान् ही बन गया होता परन्तु महात्मा भी न बनकर मात्र जादूगर ही बना रहा, फिर भी जादूगरी में ही उसकी यश-मर्यादा कम नहीं रही है।
श्री बालयोगेश्वर जी, सतपाल आदि सोsहँ वालों को इस बात पर अवश्य विचार करना चाहिए कि अपने अनुयायियों को जिन साधनाओं (पतनोन्मुखी सोsहँ-श्वाँस-प्रश्वाँस द्वारा, ज्योति-दर्शन, तथा अनहदनाद और खेंचरी मुद्रा) को प्रदान कर रहे हैं। क्या आप ही अवतार लेकर प्रदान कर रहे हैं, या आपके पिता श्री हंस जी महाराज भी प्रदान करते थे या उनके (श्री हंस जी महाराज) गुरु श्री स्वरूपानन्द जी भी प्रदान करते थे या उनके पूर्व श्री ब्रम्हानन्द जी भी प्रदान करते थे जैसा कि उनके भजनों से ज्ञात होता है। आप पाठक बंधु भी देखें:-
नाम साधना
सोsहँ शब्द विचारों साधो, सोsहँ शब्द विचारो रे ॥टेक॥
माला कर से फिरत नहीं हैं, जीभ न वर्ण उचारो रे ॥
अजपा जाप होत घट माही ताकी ओर निहारो रे ॥१॥
हँ अक्षर ले श्वाँस उठाओ, सो से जाय विठाओ रे । 
हँ सो उलट होत है सोsहँ योगीजन निरधारो रे ॥२॥ 
सब इक्कीस हजार मिलाकर छै सौ होत सुमारो रे । 
अष्ट पहर में जागत सोवत मन में जपो सुमारो रे ॥३॥
जो जन चिन्तन करत निरन्तर छोड़ जगत व्यवहारो रे ।
ब्रम्हानन्द परमपद पावे मिटे जनम संसारो रे ॥४॥ 
                           राग मंगल ताल—३

ज्योति दर्शन
घट में ही उजियारा साधो, घट में ही उजियारा रे ॥टेक॥
पास बसे अरु नजर न आवे बाहर फिरत गवारा रे ।
बिन सद्गुरु के भेद न जाने कोटि जतन कर हारा रे ॥१॥
आसन पदम बाँध कर बैठो उलट नैन का तारा रे ।
त्रिकुटि महल में ध्यान लगाओ, देखो खेल अपारा रे ॥२॥
नहिं सूरज नहिं चाँद चाँदनी, नहिं बिजली चमकारा रे ।
जगमग ज्योति जले निशिवासर पार ब्रम्ह विस्तारा रे ॥३॥
जो योगी जन दर्शन पावे उघड़े मोक्ष दुवारा रे ।
ब्रम्हानन्द सुनो रे अवधू वो है देश हमारा रे ॥४॥

खेँचरी मुद्रा
सुनो खेंचरी बात साधो, सुनो खेंचरी बात रे ।।टेक।।
सबसे बड़ी खेंचरी मुद्रा योगी जन की मात रे ।
जो जन साधन करत निरन्तर भव सागर तर जात रे ।।१।।
जीभ तले की नाड़ कटे जब तब पीछे उलटात रे ।
धीरे-धीरे गले के ऊपर छेद मांही ठहरात रे ।। २ ।।
पीछे ध्यान धरे भृकुटी में कांपे सब ही गात रे ।
ब्रम्हज्योति का दर्शन होवे झरे सुधा दिन रात रे ।। ३ ।।
दिन-दिन ध्यान करे जन योगी काया सुध विसरात रे ।
ब्रम्हानन्द स्वरूप भावे फेर जन्म नहि पात रे ।। ४ ।।
राग मंगल ताल-३

अनहद नाद 
अनहद की धुन प्यारी साधो, अनहद की धुन प्यारी रे ।। टेक ।।
आसन पद्म लगाकर कर से मूँद कान की बारी रे ।
झीनी धुन में सूरत लगाओ होत नाद झनकारी रे ।। १ ।।
पहले-पहले रिल मिल बाजे पीछे न्यारी-न्यारी रे ।
घंटा शंख बंशरी वीणा ताल मृदंग नगारी रे ।। २ ।।
दिन – दिन सुनत नाद जब विकसे काया कंप सारी रे ।
अमृत बूँद झरे मुख मांही योगी जन सुख कारी रे ।। ३ ।।
तन की सुध सब भूल जात है घट में होय उजारी रे ।
ब्रम्हानन्द लीन मन होवे देखी बात हमारी रे ।। ४ ।।
राग मंगल ताल ----३
इस प्रकार उपरोक्त भजनों के आधार पर तो यह स्पष्ट जाहिर होता है कि योग की उन्हीं चार साधनाओं को ही श्री ब्रम्हानन्द जी भी बताते व कराते थे आप (श्री हंस जी, श्री बालयोगेश्वर जी तथा सतपाल आदि आदि सोsहँ वाले) लोगों की तरह था। लगभग समस्त ही योगी-महात्माओं में देखा जा रहा है कि ज्योति को ही चेतन आत्मा भी और पारब्रम्ह परमात्मा भी कहे हैं जो नहीं कहना चाहिए, परन्तु हमेशा योग-योगी की ही बात कर रहे हैं, मगर अपने को तत्त्वज्ञानी कहते रहे हैं।
इसी प्रकार नानकदेव जी, कबीरदास, रविदास, तुलसीदास आदि जितने भी सन्त-महात्मा, योगी-यति, ऋषि-महर्षि तथा शंकर जी आदि भी इन्ही साधना प्रक्रियाओं को जनाते व कराते रहे हैं। शंकर जी आदि सतयुग, त्रेतायुगीन और द्वापर युगीन तक वाले सोsहँ नहि बल्कि हँसो वाले थे परन्तु वे लोग भी तत्त्वज्ञानी नहीं थे। श्री वशिष्ठ जी, आद्यशंकराचार्य जी, श्री रामकृष्ण परमहंस जी, स्वामी विवेकानन्द जी आदि समस्त महापुरुषों ने भी यही साधना पद्धति अपने अनुयायियों को बताये व कराये थे। तब तो ये लोग भी अवतारी ही और तत्त्वज्ञानी ही थे, और तब मात्र ये ही क्यों जितने भी ऋषि-महर्षि, योगी-महात्मा आदि थे और हैं सब के सब ही तत्त्वज्ञानी, सद्गुरु तत्त्वज्ञानदाता, अवतारी परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप भगवान ही थे और हैं भी। तब तो आप सबके उस कथन का क्या होगा ? कि भगवान एक था-एक ही है-और सदा सर्वदा एक ही रहने वाला भी होता है। वह एक बार पूरे भू-मण्डल पर एक ही शरीर के माध्यम से अवतरित होता है --- दो से भी नहीं; बहुत शरीरों से एक ही बार की बात ही कहाँ? कथन का क्या होगा? यदि ये उपरोक्त सभी नहीं थे और नहीं हैं तब आप (श्री हंस जी, श्री बालयोगेश्वर जी, सतपाल आदि आदि सोsहँ वाले) लोग भी मात्र उन्ही साधनाओं को कर और करा कर तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु या अवतारी कैसे हो जायेंगे ?
पातञ्जलि जी ने तो अष्टांग योग का वर्णन किया था जो एक पूर्ण योग पद्धति है, जिसमें से आप लोगों की तो मात्र ४ अंग की ही योग-साधना ही है जैसे – (१) आसन (२) प्राणायाम (३) धारणा (सोsहँ जो कि आत्मा का जीवमय होता हुआ स्थूल शरीर की तरफ ले जाने – रखने वाली पतनोन्मुखी सहज स्थिति है योग की क्रिया भी नहीं है) (४) ध्यान। क्या ४ अंगों के बाद भी कुछ है? अर्थात् कुछ नहीं है तो अष्टांग योग वाले पातञ्जलि ऋषि जो योग के आधार हैं फिर भी तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु या अवतारी नहीं थे। फिर तो आप लोग मिथ्याज्ञानाभिमानी एवं मिथ्याहंकारी के सिवाय और कुछ भी रह गए हैं क्या? इस सच्चाई को ईमान से आप सभी स्वीकार क्यों नहीं कर लेते ? भगवान अवतार लेकर धरती पर असत्य-अधर्म की सफाई और सत्य-धर्म संस्थापन में लग गया है तो आप सभी से सच्चाई स्वीकार करवा ही लेगा। ऐसा क्यों नहीं समझते-चेतते?
अतः अफसोस है कि इन्ही उपर्युक्त चार प्रक्रियाओं को ही मिथ्याज्ञानाभिमानवश तत्त्वज्ञान घोषित कर आप (श्री बालयोगेश्वर जी व सतपाल आदि-आदि सोsहँ वाले सभी ही) अपने-अपने अनुयायियों तथा भोले-भाले भगवद् प्रेमी जिज्ञासुओं में भ्रामकता का प्रचार रूप धोखा दे रहे हैं जो समाज में भगवद् धर्म या सत्य सनातन धर्म के प्रति घोर अन्याय हो रहा है जो बिल्कुल ही नहीं होना चाहिए।
आप ही लोग जिसके पीछे लाखों करोड़ों लोग चल रहे हैं, जब असत्य-भाषी या मिथ्याभाषी (योग-अध्यात्म के साधना वह भी हँसो नहीं –सोsहँ को ही तत्त्वज्ञान कहना, आत्मा ईश्वर या शिव – ज्योति को ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा-परमेश्वर कहना, साथ ही अपने ही महात्मा-योगी के स्थान पर तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु भगवदवतारी बनना आदि आप लोगों का असत्य मिथ्याज्ञानाभिमान ही तो है) हो जायेंगे तो फिर इस जनमानस को सत्यभाषी – महापुरुष सन्त-महात्मा कहाँ मिलेंगे ?
आप (श्री बालयोगेश्वर जी व सतपाल आदि समस्त सोsहँ वाले बनावटी-नकली अवतारी व भगवान या सद्गुरु) लोगों को थोड़ा भी यह अवश्य ही विचार करना चाहिए कि क्या सत्य से बढ़कर कोई धर्म तथा असत्य से बढ़कर कोई पाप है ? किसी सन्त महात्मा की ही तो यह वाणी भी है जो कि इसी की तरफ संकेत करती है –
साँच बराबर ताप नहीं और झूठ बराबर पाप।
मिथ्याज्ञानाभिमान कभी भी सत्यज्ञान के समक्ष टिक नहीं सकता है। अन्ततः प्रायश्चित व अपमान के साथ परमसत्य रूप परमात्मा-परमेश्वर-भगवान तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। फिर तो समय रहते क्यों न चेत-सम्भल जाया जाय ?
यह सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस, सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्, श्री हरिद्वार आश्रम------रानीपुर मोड—रेलवे क्रासिंग से उत्तर समीप ही हिल बाइपास रोड, हरिद्वार वाली शरीर से परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् के ज्ञान अथवा तत्त्वज्ञान, जो एक मात्र सत्यज्ञान है, के प्रचार-प्रसार तथा स्थापना हेतु उसी परमतत्त्वम् के द्वारा अधिग्रहीत, संचालित व क्रियाशील है। यह शरीर (सदानन्द) कभी भी नहीं चाहता कि योगी-महात्मा को कुछ कहे। यह सबके साथ अगाध श्रद्धा-भाव से रहना-चलना तथा व्यवहार स्थापित करना-रखना चाहता है। यह सन्त, महात्मा, योगी-यति, सन्यासी, गृहस्थी आदि किसी से भी बैर विरोध व संघर्ष बिल्कुल ही नहीं चाहता है। प्रत्येक के लिए इसके (सदानन्द के) तरफ से श्रद्धा भाव सादर समर्पित है। परंतु इसका प्रयोग मात्र सद्भाव व सद्व्यवहार एवं सत्प्रेम रूप में ही हैं। कालनेमि-कपटी मुनियों के लिए ऐसा संभव ही नहीं है  
इस सदानन्द वाली शरीर को परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूपी परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान की तरफ से यही कार्य मिला है कि जितने भी अभिमानी इस दुनिया में हैं, चाहे वे धनाभिमानी हों या पदाभिमानी, विद्याभिमानी हों या सिद्धयाभिमानी, योगाभिमानी हों या बनावटी भगवान या अवतारी जैसा मिथ्याज्ञानाभिमानी हों, प्रत्येक के अभिमान तथा मिथ्याज्ञानाभिमान को तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान द्वारा काटकर या समाप्त कर, प्रत्येक को उसकी अपनी यथार्थ-स्थिति को समझा-बुझाकर बोध कराते हुये दिखा देना तथा उससे यह भी बता देना कि आप चाहे जो हों, उससे भी आगे कोई है और वह है परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूपी परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान। आप (श्री बालयोगेश्वर जी, साईं बाबा, सतपाल आदि सहित समस्त बनने (सोsहँ-शिवोsहँ-ॐ आदि-आदि) वाले भगवान या अवतारी) चाहे जितना भी जानते हों या जानकार हों, उससे भी आगे जानने वाला या जानकार भी है और वह है, परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूपी परमात्मा तथा परमात्मा द्वारा अधिग्रहीत, संचालित एवं क्रियाशील सदानन्द वाली शरीर।
इस प्रकार सदानन्द वाली शरीर को आप लोग या जो कोई भी अहंकारी या जो कुछ भी समझे, ठीक है, परन्तु इस बात पर तो आप समस्त लोगों को भी विचार करना ही पड़ेगा कि जीव ही आत्मा नहीं है और आत्मा ही कदापि परमात्मा नहीं है;, पतनोन्मुखी सोsहँ, उर्ध्वमुखी हँसो – दिव्य ज्योति- शिव ही कदापि परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् नहीं है; तथा ध्यान आदि साधना ही कदापि तत्त्वज्ञान नहीं है; स्वाँस-प्रस्वाँस द्वारा ॐ-सोsहँ-हँसो तथा ध्यान द्वारा ज्योति दर्शन वाली साधना-प्रक्रिया आदि आत्म-दर्शन (आत्मा का दर्शन) तथा आत्म-मिलन (जीव का आत्मा से मिलना) मात्र ही करा सकता है, परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूपी परमात्मा का दर्शन या मिलन कदापि नहीं करा सकता है।
आत्मा वालों ! आप लोग अपने भूल और भ्रमवश हुये मिथ्याज्ञानाभिमान जो कि—आत्मा ही परमात्मा, योग-साधना (सोsहँ-हँसो और ज्योति की प्रक्रिया) ही तत्त्वज्ञान और ॐ-सोsहँ-हँसो-शिव तथा ज्योति ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप शब्दब्रम्ह है – को त्याग कर निःसंकोच भाव से सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस से परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूपी परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता को यथार्थतः तत्त्वज्ञान द्वारा जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं एवं आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-दिव्य ज्योति-शिव-हँसो ज्योति की उत्पत्ति, क्रिया-प्रक्रिया परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् से ही किस प्रकार उत्पन्न-संचालित होता हुआ अन्त में ही किस प्रकार विलय करता है, अर्थात् जीव,, आत्मा और परमात्मा (आत्मतत्त्वम्) की यथार्थ जानकारी, दर्शन, प्राप्ति तथा बातचीत करते हुये पहचान करना चाहिए साथ ही जीव एवं आत्मा और परमात्मा अथवा ॐ-सोsहँ-हँसो-शिव ज्योति और आत्मतत्त्वम् के यथार्थपूर्ण रहस्यों को जानकर, समाज का सुधार व उद्धार करना-कराना चाहिए।
आप बन्धुओं ! धन (आश्रमों की अट्टालिकाओं व सम्पत्तियों) तथा जन (विशाल जनसमूह का अनुयायी होना) तथा वृहद् स्तर पर प्रचार-प्रसार को देख कर अभिमानी न बनें ! आप लोगों का यह अभिमान, मिथ्याभिमान मात्र है क्योंकि परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा के समक्ष यह सब, कुछ है? अर्थात् कुछ भी नहीं है, मिथ्या है, और इसके माध्यम से अपने को अवतारी या भगवान बनना या स्वीकार करना, मिथ्याभिमान तथा मिथ्याज्ञानाभिमान के सिवाय और कुछ भी नहीं है जो परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूपी परमात्मा तथा उनके सत्य-ज्ञान (तत्त्वज्ञान) द्वारा कटना व समाप्त होना ही है। तो क्यों नहीं समय रहते ही हम सभी लोग सर्वसम्मति से शान्तिमय ढंग से निःसंकोच एवं निरभिमानी के रूप में जान-समझ लें कि “यथार्थतः तत्त्वज्ञान क्या है? क्या जीव की जानकारी ही सत्यज्ञान या तत्त्वज्ञान है या आत्मा की भी ? पुनः क्या आत्मा (सः तथा ज्योति) की जानकारी ही तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान है या परमात्मा-खुदा-गॉड या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता (आत्मतत्त्वम्) शब्दरूप की भी ?
आप समस्त महात्मागण श्री बालयोगेश्वर जी, श्री सत् साईं बाबा, सतपाल आदि समस्त बनने (ॐ-सोsहँ-हँसो) वाले अवतारी या भगवान सभी एक स्वर से यह कह रहे हैं कि “दुनिया वाले तुम लोग मुझे शरीर समझ रहे हो किन्तु मैं शरीर नहीं हूँ, तुम लोग मेरे जिस शरीर को देख रहे हो, यह मैं नहीं हूँ। तुम मुझे इन बाह्य दृष्टियों से एवं बाह्य (ऊपरी) ज्ञान से नहीं देख सकते या नहीं जान सकते हो क्योंकि मैं शरीर नहीं हूँ। मैं आत्मा हूँ और यह आत्मा ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप रूप परमात्मा है और यही सब कुछ है। इसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं; और मैं आत्मा ही परमात्मा हूँ मैं ॐ (अ उ म) प्रवण स्वरूप हूँ। मैं ही सोsहँ तथा ज्योति रूप हूँ अर्थात् वह मैं (सोsहँ) हूँ और मैं ही अवतारी या भगवान हूँ। धर्म स्थापना एवं दुष्टों के संहार हेतु समय-समय पर अवतरित होता हूँ।” आप एक बार ईमान से तो कहिए कि क्या यह सच है ? नहीं ! नहीं !! कदापि नहीं !!! आप सबका यह कथन झूठ है --- सरासर झूठ है।
रावण के दरबार में अंगद जी, रावण के अभिमान पूर्ण वाणी को सुनकर पूछ पड़े कि----रावण ! आप कौन हैं ? तीन रावण को तो मैं जानता हूँ------एक जो बलि के यहाँ गया था जिसके यहाँ लड़कों द्वारा बाँध कर नाकों पर दिया जलाया जा रहा था तो बलि छुड़वा दिया; दूसरा सहस्त्र बाहु के यहाँ गया था। वहाँ भी बाँधकर घोड़सार में रखा गया था। बाद में छोड़ा गया। तीसरा मेरे पिता बाली की काँख में ही छः माह तक पड़ा रहा । तो हे रावण ! आप इन तीनों में कौन हैं ? या अलग से कोई हैं, थोड़ा हमें भी बताने का कष्ट करें । ठीक इसी प्रकार यहाँ भी देखें। कोई ॐ को तो कोई भ्रामक शिवोsहँ को तो कोई पतनोन्मुखी सोsहँ को ही भगवान कहने में लगे-लगाये हैं। जबकि इसमें से कोई भी परमात्मा या भगवान नहीं है। भगवान तो वास्तव में परमतत्त्वम् रूप भगवत्तत्त्वम् होता है, है और रहेगा भी।
अतः बन्धुओं ! आप लोग अपने मिथ्याभिमान एवं मिथ्याज्ञानाभिमान को हटाकर इससे ऊपर उठकर अपनी-अपनी जानकारी एवं एवं अनुभूति के आधार पर मुझे (सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद् वाले) सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस को एक बात तो थोड़ा बहुत समझा देवें कि आप लोग कितने प्रकार के ‘’मैं’’ को जानते हैं और उसमें से आप कौन ‘’मैं’’ हैं? मुझ सदानन्द शरीर वाले को मात्र यही (उपर्युक्त) समझा दिया जाय। छः प्रकार का ‘’मैं’’ तो यह सदानन्द जनता है जो अगले अध्याय में देखें। इस छः प्रकार के मैं मे से आप कौन मैं हैं। यह बतायें या इससे भी कोई आप अलग मैं हैं? पाठक बन्धु इन मिथ्याज्ञानाभिमानियों के कुछ उद्धरण देखें –
‘’साईं बाबा’’ वचनामृत से
(खंड सात -----‘’मानव जीर्णोद्धार”)
अखिल भारतीय कान्फ्रेन्स २०-११-१९७० ई॰ – सत्य साईं संगठन प्रेम और अहिंसा के सिद्धान्तों को दैनिक जीवन के आचार में उतारने के लिए स्थापित किया गया है। इसे चार समस्याओं के अन्वेषण में लगाना है –
१.      शरीर – यह क्या है ? (देहम्) २. शरीर – मैं शरीर नहीं हूँ (नाsहँ) ३. फिर मैं कौन हूँ ? (कोsहँ) ४. अच्छा, मैं वही हूँ (सोsहँ)।
प्रशान्ति निलयम, अखिल भारतीय कान्फ्रेन्स २०-११-७० ई॰
प्रश्नों के उत्तर नामक शीर्षक से –
परन्तु मन, तर्क, चेतना और अहंभाव के परे आत्मा होती है। वही परमतत्त्वं सत्, जगदात्मा या भगवान है।
                                                                 प्रशान्ति ४-१०-१९७०
सफरु मैना पल्टन नामक शीर्षक से –
मेरा नाम बाबा (BABA) है। इसमें अंग्रेजी के अक्षर बी ए बी ए आते हैं। अर्थात् में दो गुना ग्रेजुएट (स्नातक) हूँ। यह तो तुम भि देख सकते हो। इन अक्षरों का क्या अर्थ है ? बी का अर्थ बीइंग अर्थात् सत् है ! और का अर्थ एवेयरनेस अर्थात् चित्त है ! दूसरी बी का अर्थ ब्लेस आनन्द है और का अर्थ आत्मा है। पूरे शब्द का अर्थ है कि मैं सच्चिदानन्द आत्मा हूँ और तुम भी सत्-चिद्-आनन्द आत्मा हो। अन्तर केवल इतना ही है कि तुम्हें इसका भान या बोध नहीं है। तुमने इसे अभी नहीं जान पाया है, नहीं प्रकट किया है। जिस प्रकार मैंने इंगित किया है, उस प्रकार सेवा करना भी उस अन्वेषण का ढंग है।

“खारा मीठा हो गया” नामक शीर्षक में साईं का कथन –
                                                         धर्म क्षेत्र बम्बई दि॰ ७-१-१९७१
जब व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर चल पड़ता है तो वह नेति यह नहीं कहता हुआ हर वस्तु को नकारता चला जाता है। तब कहीं यात्रा के अन्त में केवल आत्मा ही रह जाती है तो उससे साक्षात्कार होता है। इसकी कोई परिभाषा, वर्णन या पद की व्याख्या नहीं है। यह तो जिज्ञासा का अन्त है। सभी प्रयत्नों की चरम सर्वोत्कृष्टि परिणति है। यह वह शान्ति है जो समस्त वाणी को उदरस्थ करके बैठ गई है। ज्ञान का मौलिक बीज है मैं शरीर नहीं हूँ। इसमें तीन विचार हैं “मैं” शरीर नहींमैं ही आत्मा है, वह एक केवल सत्य है।

अतः आप पाठक बन्धुओं को साईं बाबा के कथनों से क्या जानने को मिला ? आप अवश्य ही जान-समझ गए होंगे कि उनके कथनों में यह स्पष्टतः दिखाई दे रहा है कि शरीर और आत्मा मात्र दो ही की मान्यता है। शरीर और आत्मा के मध्य जीव (रूह-सेल्फ) स्व-अहम् की और आत्मा-ईश्वर-शिव सोsहँ-हँसो ज्योति से भी श्रेष्ठ आत्मा के पिता रूप परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान का भी पृथक-पृथक रूप में कहीं कोई अतिरिक्त मान्यता या स्वीकारोक्ति नहीं है। जबकि वास्तव में शरीर-जिस्म-बॉडी व जीव-रूह-सेल्फ एवं आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-हँसो-शिव ज्योति और परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान-परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् चारों ही पृथक-पृथक होते हैं—मैं सन्त ज्ञानेश्वर बात-चीत सहित साक्षात् दिखलाता भी तो हूँ। जान-देख जाँच-परख करके तो देख लें। जीव ही आत्मा है और आत्मा ही परमात्मा है – यह कथन बिल्कुल ही झूठ और गलत है । प्रमाणित करने को तैयार हूँ।
----------सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस              

ब्रम्हानन्द जी, श्री हंस जी, श्री बलयोगेश्वर जी, सतपाल
श्री ब्रम्हानन्द जी, के भजनों द्वारा जिन चार साधनाओं या योग की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है जैस—अजपा जाप (श्वाँस-प्रश्वाँस द्वारा पतनोन्मुखी सोsहं – उर्ध्वमुखी हँसो), ध्यान (ज्योति दर्शन), खेचरी तथा अनहद नाद। इस प्रकार इन चार प्रक्रियाओं को ही जनाया व कराया करते थे। इन्ही चार प्रक्रियाओं को ही अनन्तपुर साहब, गुना वाले एवं श्री हंस जी भी जानते व कराते थे और चारों प्रक्रियाओं मात्र को ही श्री बालयोगेश्वर जी तथा सतपाल भी जनाते व कराते हैं। इन्ही प्रक्रियाओं को ही कबीरदास, तुलसीदास जी, नानक देव जी भी कराते थे जैसे देखें—
अरे कोई समझो रे नर ज्ञान गगन में आवाज कैसी है॥ टेक॥
बिनु भूमि का मन्दिर देखा, बिना सरोवर पानी ।
बिन दीपक एक चमक चाँदनी ज्योति में ज्योति समानी ॥ गगन ....... ॥
जग में आया पढ़ा लिखाया सुरता नहीं मिटानी ।
इंगला पिंगला सुषुमन नाड़ी, त्रिकुति बाँध निसानी ॥ गगन ..... ॥
गगन महल दो पंछी देखा एक गुरु एक चेला ।
चेला रहा सो चुन चुन खाया, गुरु निरन्तर खेला ॥गगन .... ॥
गगन महल बीच गऊ बियानी, धरती दूध जमानी।
माखन माखन सन्तन खा गये, छाँछ जगत बरतानी ॥ गगन ..... ॥
कहत कबीर सुनो भई साधो, यह पद है अलबेला ।
जो इस पद का अर्थ बतावे वही गुरु हम चेला ॥ गगन .... ॥

इसी सोsहं तथा ज्योति से सम्बंधित श्री तुलसीदास जी भी थे और इसी साधना पद्धति को ही वे ज्ञान दीपक भी कहे हैं फिर भी इसे आत्मा ही कहा है और परमात्मा का रूप श्री रामचन्द्र जी को ही कहा है।
सोsहमस्मि इति वत्ति अखंडा। दीप शिखा सोइ परमप्रचंडा ॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकाशा। मिटहिं भेद भाव भूल भ्रम नाशा ॥
सब कर परम प्रकाशक जोई। राम अनादि अवधपति सोइ ॥
जगत प्रकाश प्रकाशक रामू। मायाधीश ज्ञान गुनधामू ॥
जासु सत्यता ते जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया ॥
राम जो परमातमा भवानी। तहँ भ्रमअति आविहित तव बानी ॥
आस संशय आनत उर माहीं। ज्ञान विराग सकल गुन जाहीं ॥
एक अनीह अरूप अनामा। आज सच्चिदानन्द परधामा ॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम वश सगुण सो होई ॥

इस प्रकार साधना पद्धति (सोsहं तथा ज्योति) से ही युक्त श्री तुलसीदास जी अपने को सन्त व भक्त बने रहे, परन्तु आज कल के योगी-सन्त-महात्माओं को अब सन्त सन्त-योगी-महात्मा आदि बने रहने में कमी, लज्जा तथा अमर्यादित लग रहा है। इसलिए सीधे अवतारी या भगवान ही बन जा रहे हैं। असलियत तो यह है कि वर्तमान में बनने वाले बनावटी नकली अवतारियों व भगवानों जैसा सोsहं प्रक्रिया व ध्यान ही तत्त्वज्ञान है, जैसे मिथ्याज्ञानाभिमान श्री तुलसीदास जी आदि यहाँ तक कि शंकर जी व नारद जी को नहीं था। ये सभी लोग श्री विष्णु जी, श्री रामचन्द्र जी व श्री कृष्णचन्द्र जी को स्वीकार किए हैं। इन मिथ्याज्ञानाभिमानियों एवं मिथ्याहंकारियों को तो जन-धन चाहिए, किसी के भी धर्म से क्या लेना-देना है ?
अतः आदिकाल से लेकर वर्तमान तक जितने भी योगी-यति ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा थे व हैं वे सभी यही कहा करते थे कि – मैं शरीर नहीं हूँ, मैं निर्विकल्प, सर्वव्यापी, निर्गुण, निर्लेप, अकर्ता, ज्योति स्वरूप आत्मा हूँ। इस प्रकार समस्त आत्मा वालों को ही शरीर वाले मैं के बाद मात्र आत्मा वाले मैं की भी अनुभूति रहती थी वह भी स्पष्टतः जानकारी नहीं; जिसे ये कहते हैं कि – ऐ दुनिया वालों ! तुम मुझे बाह्य ज्ञान व बाह्य दृष्टियों से नहीं जान व देख सकते हो। तुम लोग मुझे ज्ञान से ही जान पाओगे तथा दिव्यदृष्टि से ही देख पाओगे और तब देखोगे कि मैं आत्मा सबके हृदय में रहता हूँ। तुम अपने अंदर ही मुझे देखोगे और जब अज्ञानी मानव भगवान को जानने व देखने के लिए इनके पास आता है, तब ये लोग स्वयं या अपने महात्माओं द्वारा साधना द्वारा पतनोन्मुखी सोsहं कृपा जना देते हैं। यहाँ तक कि उर्ध्वमुखी हंसो की भी नहीं क्योंकि सोsहं-हंसो का अन्तर तो इन्हे मालूम ही नहीं है – बतावे तो कैसे बतावे ? तत्पश्चात् कह देते हैं कि सोsहं वह मैं हूँ मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ। ज्योति ही आत्मा है और आत्मा ही मैं हूँ और मैं आत्मा ही परमात्मा है। इसलिए जो ज्योति देखे हो, वही भगवान या परमात्मा का रूप है और सोsहं ही परमात्मा या भगवान का नाम है। भले ही साधना में परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा की कोई जानकारी दे या न दे, तत्त्व शब्द का एक बार भी पूरे प्रयोग की प्रक्रिया में न आया हो, तत्त्व का दर्शन तो दूर रहा, फिर भी अनुयायियों से कह दिया जाता है कि यही साधना ही तत्त्वज्ञान है। क्योंकि यदि तत्त्वज्ञान नहीं कहेंगे तो सद्ग्रन्थ उन्हे अवतारी या सद्गुरु या भगवान बनना प्रमाणित ही नहीं करेगा, क्योंकि परमतत्त्वं वाला ही अवतारी तथा परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् ही भगवान होता है।
ये लोग योग-साधना जैसा पीतल देकर पीतल और ठठेर बनने-कहलाने के बजाय तत्त्वज्ञानदाता परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप स्वर्णदानी-स्वर्णकार बनने लगते हैं क्योंकि उन्हे योग-साधनादाता (पीतल देने वाले मात्र ठठेर) बने रहने में लज्जा व संकोच होता है।

अतः बन्धुओं ! मिथ्याभाषी न बनें – योग साधनारूपी पीतल को योग-साधना रूपी पीतल ही कहने व देने पर आप असत्य नहीं कहला सकते हैं, परन्तु योग-साधना रूपी पीतल को ही तत्त्वज्ञान रूपी सोना कहना व देना बिल्कुल ही मिथ्या-भाषी होना है। महात्मा का अस्त्र-शस्त्र सत्य ही होना चाहिए, असत्य नहीं। सत्यमेव जयते नानृतम् । सब भगवत् कृपा

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