भगवान श्रीकृष्ण जी महाराज के श्रीमुख की वाणी

भगवान श्रीकृष्ण जी महाराज के श्रीमुख की वाणी देखें
(इनके द्वारा भी आत्मतत्त्वम् तत्त्वज्ञान और सद्गुरु की ही प्रधानता दी गयी है।)
आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्धदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रणोंति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता २/२९)
हे अर्जुन ! यह आत्मतत्त्वम् बड़ा ही गहन है, इसलिए कोई कोई ही इस आत्मतत्त्वम् को आश्चर्य की ज्यों देखता है; कोई महापुरुष इस आत्मतत्त्वम् को आश्चर्य की ज्यों बोलता-बताता है और वैसे दूसरा कोई ही आश्चर्य की ज्यों सुनता है और कोई-कोई सुनकर भी इस तत्त्व को नहीं जान पाता है।
न मे विदुः सुरगणा: प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणाम् च सर्वशः ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता १०/२)
हे अर्जुन ! मुझे न तो देवता लोग जानते हैं और न तो मेरी उत्पत्ति और प्रभाव को महर्षिगण ही जानते हैं क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदि कारण हूँ।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोsर्जुन ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ४/९)
हे अर्जुन ! मेरा यह जन्म एवं कर्म दिव्य अर्थात् अलौकिक है, इस प्रकार जो पुरुष तत्त्व से जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता है किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है।
ज्ञानं तेsहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोsन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ७/२)
हे अर्जुन ! मैं तेरे लिए विज्ञान सहित तत्त्वज्ञान के उस रहस्य को सम्पूर्णता से कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहता है।
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ७/३)
हजारों मनुष्यों में कोई-कोई मनुष्य ही मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले सिद्धों में से कोई-कोई ही सिद्ध पुरुष मेरे परायण हुआ मेरे को तत्त्वतः अर्थात् तत्त्व से जानता है।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवं विद्यो दृष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ११/५३)
हे अर्जुन ! न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ, न योग और न मुद्रा आदि क्रियाओं से ही इस प्रकार तत्त्व रूप मैं देखा जाने को शक्य हूँ, जैसा मेरे को तुमने देखा है।
भक्त्या त्वनन्ययाशक्य अहमेवं विधोsर्जुन ।
ज्ञातुं दृष्टु च तत्त्वेन प्रवेष्टु च परंतप ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ११/५४)
हे परम तप वाले अर्जुन ! अनन्य भक्ति करके तो इस तत्त्व रूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्त्व को जानने के लिए तत्त्व में ही प्रवेश करने के लिए तत्त्व द्वारा ही शक्य हूँ।
तद्विद्वि प्राणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ४/३४)
इसलिए तत्त्व को जनाने वाले तत्त्वज्ञानदाता पुरुष से भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुये प्रश्न द्वारा उस तत्त्वज्ञान को जान। वे तत्त्व को साक्षात् देखने वाले तत्त्वज्ञानदाता महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे. 
 यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।
(श्रीमद् भगवद् गीता ४/३५)
जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन ! जिस तत्त्वज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को अशेष रूप से पहले अपने में और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा-परमेश्वर में देखेगा।
अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभयः पापकृत्तमः।
सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।।
(श्रीमद् भगवद् गीता ४/३६)
यदि तू अन्य पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है तो भी तू इस ज्ञानरूप नौका द्वारा नि:सन्देह सम्पूर्ण पाप-समूह से भलीभाँति तर जायेगा।
यथैधांसि समिध्दोsग्नि: भस्मसात्कुरुतेsर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।
(श्रीमद् भगवद् गीता ४/३७)
हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञान रूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है। 

Total Pageviews

Contact

पुरुषोत्तम धाम आश्रम
पुरुषोत्तम नगर, सिद्धौर, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश
फोन न. - 9415584228, 9634482845
Email - bhagwadavatari@gmail.com
brajonline@gmail.com